168

01 दोहा

मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ॥168॥

मूल

मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ॥168॥

भावार्थ

माता कौसल्याजी भरतजी के स्वाभाविक ही सच्चे और सरल वचनों को सुनकर कहने लगीं- हे तात! तुम तो मन, वचन और शरीर से सदा ही श्री रामचन्द्र के प्यारे हो॥168॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥
बिधु बिष चवै स्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी॥1॥

मूल

राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥
बिधु बिष चवै स्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी॥1॥

भावार्थ

श्री राम तुम्हारे प्राणों से भी बढकर प्राण (प्रिय) हैं और तुम भी श्री रघुनाथ को प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। चन्द्रमा चाहे विष चुआने लगे और पाला आग बरसाने लगे, जलचर जीव जल से विरक्त हो जाए,॥1॥

भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू॥
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं॥2॥

मूल

भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू॥
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं॥2॥

भावार्थ

और ज्ञान हो जाने पर भी चाहे मोह न मिटे, पर तुम श्री रामचन्द्र के प्रतिकूल कभी नहीं हो सकते। इसमें तुम्हारी सम्मति है, जगत में जो कोई ऐसा कहते हैं, वे स्वप्न में भी सुख और शुभ गति नहीं पावेङ्गे॥2॥

अस कहि मातु भरतु हिएँ लाए। थन पय स्रवहिं नयन जल छाए॥
करत बिलाप बहुत एहि भाँती। बैठेहिं बीति गई सब राती॥3॥

मूल

अस कहि मातु भरतु हिएँ लाए। थन पय स्रवहिं नयन जल छाए॥
करत बिलाप बहुत एहि भाँती। बैठेहिं बीति गई सब राती॥3॥

भावार्थ

ऐसा कहकर माता कौसल्या ने भरतजी को हृदय से लगा लिया। उनके स्तनों से दूध बहने लगा और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। इस प्रकार बहुत विलाप करते हुए सारी रात बैठे ही बैठे बीत गई॥3॥

बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे॥4॥

मूल

बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे॥4॥

भावार्थ

तब वामदेवजी और वशिष्ठजी आए। उन्होन्ने सब मन्त्रियों तथा महाजनों को बुलाया। फिर मुनि वशिष्ठजी ने परमार्थ के सुन्दर समयानुकूल वचन कहकर बहुत प्रकार से भरतजी को उपदेश दिया॥4॥