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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातु भरत के बचन मृदु सुनि पुनि उठी सँभारि।
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि॥164॥

मूल

मातु भरत के बचन मृदु सुनि पुनि उठी सँभारि।
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि॥164॥

भावार्थ

भरतजी के कोमल वचन सुनकर माता कौसल्याजी फिर सँभलकर उठीं। उन्होन्ने भरत को उठाकर छाती से लगा लिया और नेत्रों से आँसू बहाने लगीं॥164॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेण्टेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥1॥

मूल

सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेण्टेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥1॥

भावार्थ

सरल स्वभाव वाली माता ने बडे प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया, मानो श्री रामजी ही लौटकर आ गए हों। फिर लक्ष्मणजी के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगाया। शोक और स्नेह हृदय में समाता नहीं है॥1॥

देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई॥
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पोछिं मृदु बचन उचारे॥2॥

मूल

देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई॥
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पोछिं मृदु बचन उचारे॥2॥

भावार्थ

कौसल्याजी का स्वभाव देखकर सब कोई कह रहे हैं- श्री राम की माता का ऐसा स्वभाव क्यों न हो। माता ने भरतजी को गोद में बैठा लिया और उनके आँसू पोञ्छकर कोमल वचन बोलीं-॥2॥

अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू॥
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानी॥3॥

मूल

अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू॥
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानी॥3॥

भावार्थ

हे वत्स! मैं बलैया लेती हूँ। तुम अब भी धीरज धरो। बुरा समय जानकर शोक त्याग दो। काल और कर्म की गति अमिट जानकर हृदय में हानि और ग्लानि मत मानो॥3॥

काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता॥
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा॥4॥

मूल

काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता॥
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा॥4॥

भावार्थ

हे तात! किसी को दोष मत दो। विधाता मेरे िलए सब प्रकार से उलटा हो गया है, जो इतने दुःख पर भी मुझे जिला रहा है। अब भी कौन जानता है, उसे क्या भा रहा है?॥4॥