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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥160॥

मूल

भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥160॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी का वन जाना सुनकर भरतजी को पिता का मरण भूल गया और हृदय में इस सारे अनर्थ का कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर स्तम्भित रह गए (अर्थात उनकी बोली बन्द हो गई और वे सन्न रह गए)॥160॥बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति॥

तात राउ नहिं सोचै जोगू। बिढइ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥1॥

मूल

तात राउ नहिं सोचै जोगू। बिढइ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥1॥

भावार्थ

पुत्र को व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही हो। (वह बोली-) हे तात! राजा सोच करने योग्य नहीं हैं। उन्होन्ने पुण्य और यश कमाकर उसका पर्याप्त भोग किया॥1॥

जीवत सकल जनम फल पाए। अन्त अमरपति सदन सिधाए॥
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू॥2॥

मूल

जीवत सकल जनम फल पाए। अन्त अमरपति सदन सिधाए॥
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू॥2॥

भावार्थ

जीवनकाल में ही उन्होन्ने जन्म लेने के सम्पूर्ण फल पा लिए और अन्त में वे इन्द्रलोक को चले गए। ऐसा विचारकर सोच छोड दो और समाज सहित नगर का राज्य करो॥2॥

सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भाँति कुल नासा॥3॥

मूल

सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भाँति कुल नासा॥3॥

भावार्थ

राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गए। मानो पके घाव पर अँगार छू गया हो। उन्होन्ने धीरज धरकर बडी लम्बी साँस लेते हुए कहा- पापिनी! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर दिया॥3॥

जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही॥
पेड काटि तैं पालउ सीञ्चा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥4॥

मूल

जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही॥
पेड काटि तैं पालउ सीञ्चा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥4॥

भावार्थ

हाय! यदि तेरी ऐसी ही अत्यन्त बुरी रुचि (दुष्ट इच्छा) थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला? तूने पेड को काटकर पत्ते को सीञ्चा है और मछली के जीने के लिए पानी को उलीच डाला! (अर्थात मेरा हित करने जाकर उलटा तूने मेरा अहित कर डाला)॥4॥