159

01 दोहा

सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥159॥

मूल

सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥159॥

भावार्थ

पुत्र के स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रों में कपट का जल भरकर पापिनी कैकेयी भरत के कानों में और मन में शूल के समान चुभने वाले वचन बोली-॥159॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तात बात मैं सकल सँवारी। भै मन्थरा सहाय बिचारी॥
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥1॥

मूल

तात बात मैं सकल सँवारी। भै मन्थरा सहाय बिचारी॥
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥1॥

भावार्थ

हे तात! मैन्ने सारी बात बना ली थी। बेचारी मन्थरा सहायक हुई। पर विधाता ने बीच में जरा सा काम बिगाड दिया। वह यह कि राजा देवलोक को पधार गए॥1॥

सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥2॥

मूल

सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥2॥

भावार्थ

भरत यह सुनते ही विषाद के मारे विवश (बेहाल) हो गए। मानो सिंह की गर्जना सुनकर हाथी सहम गया हो। वे ‘तात! तात! हा तात!’ पुकारते हुए अत्यन्त व्याकुल होकर जमीन पर गिर पडे॥2॥

चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौम्पेहु मोही॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥3॥

मूल

चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौम्पेहु मोही॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥3॥

भावार्थ

(और विलाप करने लगे कि) हे तात! मैं आपको (स्वर्ग के लिए) चलते समय देख भी न सका। (हाय!) आप मुझे श्री रामजी को सौम्प भी नहीं गए! फिर धीरज धरकर वे सम्हलकर उठे और बोले- माता! पिता के मरने का कारण तो बताओ॥3॥

सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥4॥

मूल

सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥4॥

भावार्थ

पुत्र का वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी। मानो मर्म स्थान को पाछकर (चाकू से चीरकर) उसमें जहर भर रही हो। कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरू से (आखिर तक बडे) प्रसन्न मन से सुना दी॥4॥