दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवँहि जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥158॥
मूल
पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवँहि जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥158॥
भावार्थ
नगर के लोग मिलते हैं, पर कुछ कहते नहीं, गौं से (चुपके से) जोहार (वन्दना) करके चले जाते हैं। भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योङ्कि उनके मन में भय और विषाद छा रहा है॥158॥
चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥
आवत सुत सुनि कैकयनन्दिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चन्दिनि॥1॥
मूल
हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥
आवत सुत सुनि कैकयनन्दिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चन्दिनि॥1॥
भावार्थ
बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। मानो नगर में दसों दिशाओं में दावाग्नि लगी है! पुत्र को आते सुनकर सूर्यकुल रूपी कमल के लिए चाँदनी रूपी कैकेयी (बडी) हर्षित हुई॥1॥
सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेण्टि भवन लेइ आई॥
भरत दुखित परिवारु निहारा॥ मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥2॥
मूल
सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेण्टि भवन लेइ आई॥
भरत दुखित परिवारु निहारा॥ मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥2॥
भावार्थ
वह आरती सजाकर आनन्द में भरकर उठ दौडी और दरवाजे पर ही मिलकर भरत-शत्रुघ्न को महल में ले आई। भरत ने सारे परिवार को दुःखी देखा। मानो कमलों के वन को पाला मार गया हो॥2॥
कैकेई हरषित एहि भाँती। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥
सुतिह ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें॥3॥
मूल
कैकेई हरषित एहि भाँती। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥
सुतिह ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें॥3॥
भावार्थ
एक कैकेयी ही इस तरह हर्षित दिखती है मानो भीलनी जङ्गल में आग लगाकर आनन्द में भर रही हो। पुत्र को सोच वश और मन मारे (बहुत उदास) देखकर वह पूछने लगी- हमारे नैहर में कुशल तो है?॥3॥
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥4॥
मूल
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥4॥
भावार्थ
भरतजी ने सब कुशल कह सुनाई। फिर अपने कुल की कुशल-क्षेम पूछी। (भरतजी ने कहा-) कहो, पिताजी कहाँ हैं? मेरी सब माताएँ कहाँ हैं? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम-लक्ष्मण कहाँ हैं?॥4॥