157

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाई॥157॥

मूल

एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाई॥157॥

भावार्थ

भरतजी इस प्रकार मन में चिन्ता कर रहे थे कि दूत आ पहुँचे। गुरुजी की आज्ञा कानों से सुनते ही वे गणेशजी को मनाकर चल पडे॥157॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके॥
हृदयँ सोचु बड कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उडाई॥1॥

मूल

चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके॥
हृदयँ सोचु बड कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उडाई॥1॥

भावार्थ

हवा के समान वेग वाले घोडों को हाँकते हुए वे विकट नदी, पहाड तथा जङ्गलों को लाँघते हुए चले। उनके हृदय में बडा सोच था, कुछ सुहाता न था। मन में ऐसा सोचते थे कि उडकर पहुँच जाऊँ॥1॥

एक निमेष बरष सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई॥
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥2॥

मूल

एक निमेष बरष सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई॥
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥2॥

भावार्थ

एक-एक निमेष वर्ष के समान बीत रहा था। इस प्रकार भरतजी नगर के निकट पहुँचे। नगर में प्रवेश करते समय अपशकुन होने लगे। कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरह से काँव-काँव कर रहे हैं॥2॥

खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला॥
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥3॥

मूल

खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला॥
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥3॥

भावार्थ

गदहे और सियार विपरीत बोल रहे हैं। यह सुन-सुनकर भरत के मन में बडी पीडा हो रही है। तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं। नगर बहुत ही भयानक लग रहा है॥3॥

खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए॥
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब सम्पति हारी॥4॥

मूल

खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए॥
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब सम्पति हारी॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी के वियोग रूपी बुरे रोग से सताए हुए पक्षी-पशु, घोडे-हाथी (ऐसे दुःखी हो रहे हैं कि) देखे नहीं जाते। नगर के स्त्री-पुरुष अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। मानो सब अपनी सारी सम्पत्ति हार बैठे हों॥4॥