154

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।
तलफत मीन मलीन जनु सीञ्चत सीतल बारि॥154॥

मूल

प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।
तलफत मीन मलीन जनु सीञ्चत सीतल बारि॥154॥

भावार्थ

प्रिय पत्नी कौसल्या के कोमल वचन सुनते हुए राजा ने आँखें खोलकर देखा! मानो तडपती हुई दीन मछली पर कोई शीतल जल छिडक रहा हो॥154॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू। कहु सुमन्त्र कहँ राम कृपालू॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥1॥

मूल

धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू। कहु सुमन्त्र कहँ राम कृपालू॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥1॥

भावार्थ

धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले- सुमन्त्र! कहो, कृपालु श्री राम कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं? स्नेही राम कहाँ हैं? और मेरी प्यारी बहू जानकी कहाँ है?॥1॥

बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती॥
तापस अन्ध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥2॥

मूल

बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती॥
तापस अन्ध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥2॥

भावार्थ

राजा व्याकुल होकर बहुत प्रकार से विलाप कर रहे हैं। वह रात युग के समान बडी हो गई, बीतती ही नहीं। राजा को अन्धे तपस्वी (श्रवणकुमार के पिता) के शाप की याद आ गई। उन्होन्ने सब कथा कौसल्या को कह सुनाई॥2॥

भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा॥
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा॥3॥

मूल

भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा॥
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा॥3॥

भावार्थ

उस इतिहास का वर्णन करते-करते राजा व्याकुल हो गए और कहने लगे कि श्री राम के बिना जीने की आशा को धिक्कार है। मैं उस शरीर को रखकर क्या करूँगा, जिसने मेरा प्रेम का प्रण नहीं निबाहा?॥3॥

हा रघुनन्दन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर॥4॥

मूल

हा रघुनन्दन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर॥4॥

भावार्थ

हा रघुकुल को आनन्द देने वाले मेरे प्राण प्यारे राम! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गए। हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवीर! हा पिता के चित्त रूपी चातक के हित करने वाले मेघ!॥4॥