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01 दोहा

प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।
न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर॥150॥

मूल

प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।
न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर॥150॥

भावार्थ

श्री रामजी का पहला निवास (मुकाम) तमसा के तट पर हुआ, दूसरा गङ्गातीर पर। सीताजी सहित दोनों भाई उस दिन स्नान करके जल पीकर ही रहे॥150॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिङ्गरौर गवाँई॥
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥1॥

मूल

केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिङ्गरौर गवाँई॥
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥1॥

भावार्थ

केवट (निषादराज) ने बहुत सेवा की। वह रात सिङ्गरौर (श्रृङ्गवेरपुर) में ही बिताई। दूसरे दिन सबेरा होते ही बड का दूध मँगवाया और उससे श्री राम-लक्ष्मण ने अपने सिरों पर जटाओं के मुकुट बनाए॥1॥

राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढाई चढे रघुराई॥
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढे प्रभु आयसु पाई॥2॥

मूल

राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढाई चढे रघुराई॥
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढे प्रभु आयसु पाई॥2॥

भावार्थ

तब श्री रामचन्द्रजी के सखा निषादराज ने नाव मँगवाई। पहले प्रिया सीताजी को उस पर चढाकर फिर श्री रघुनाथजी चढे। फिर लक्ष्मणजी ने धनुष-बाण सजाकर रखे और प्रभु श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर स्वयं चढे॥2॥

बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा॥
तात प्रनामु तात सन कहेहू। बार बार पद पङ्कज गहेहू॥3॥

मूल

बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा॥
तात प्रनामु तात सन कहेहू। बार बार पद पङ्कज गहेहू॥3॥

भावार्थ

मुझे व्याकुल देखकर श्री रामचन्द्रजी धीरज धरकर मधुर वचन बोले- हे तात! पिताजी से मेरा प्रणाम कहना और मेरी ओर से बार-बार उनके चरण कमल पकडना॥3॥

करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिन्ता मोरी॥
बन मग मङ्गल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥4॥

मूल

करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिन्ता मोरी॥
बन मग मङ्गल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥4॥

भावार्थ

फिर पाँव पकडकर विनती करना कि हे पिताजी! आप मेरी चिन्ता न कीजिए। आपकी कृपा, अनुग्रह और पुण्य से वन में और मार्ग में हमारा कुशल-मङ्गल होगा॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्हरें अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी॥

मूल

तुम्हरें अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी॥

भावार्थ

हे पिताजी! आपके अनुग्रह से मैं वन जाते हुए सब प्रकार का सुख पाऊँगा। आज्ञा का भलीभाँति पालन करके चरणों का दर्शन करने कुशल पूर्वक फिर लौट आऊँगा। सब माताओं के पैरों पड-पडकर उनका समाधान करके और उनसे बहुत विनती करके तुलसीदास कहते हैं- तुम वही प्रयत्न करना, जिसमें कोसलपति पिताजी कुशल रहें।