01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥149॥
मूल
सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥149॥
भावार्थ
हे सखा! श्री राम, जानकी और लक्ष्मण जहाँ हैं, मुझे भी वहीं पहुँचा दो। नहीं तो मैं सत्य भाव से कहता हूँ कि मेरे प्राण अब चलना ही चाहते हैं॥149॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि पुनि पूँछत मन्त्रिहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ॥
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥1॥
मूल
पुनि पुनि पूँछत मन्त्रिहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ॥
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥1॥
भावार्थ
राजा बार-बार मन्त्री से पूछते हैं- मेरे प्रियतम पुत्रों का सन्देसा सुनाओ। हे सखा! तुम तुरन्त वही उपाय करो जिससे श्री राम, लक्ष्मण और सीता को मुझे आँखों दिखा दो॥1॥
सचिव धीर धरि कह मृदु बानी। महाराज तुम्ह पण्डित ग्यानी॥
बीर सुधीर धुरन्धर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥2॥
मूल
सचिव धीर धरि कह मृदु बानी। महाराज तुम्ह पण्डित ग्यानी॥
बीर सुधीर धुरन्धर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥2॥
भावार्थ
मन्त्री धीरज धरकर कोमल वाणी बोले- महाराज! आप पण्डित और ज्ञानी हैं। हे देव! आप शूरवीर तथा उत्तम धैर्यवान पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। आपने सदा साधुओं के समाज की सेवा की है॥2॥
जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥3॥
मूल
जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥3॥
भावार्थ
जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुडना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं॥3॥
सुख हरषहिं जड दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाडिअ सोच सकल हितकारी॥4॥
मूल
सुख हरषहिं जड दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाडिअ सोच सकल हितकारी॥4॥
भावार्थ
मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। हे सबके हितकारी (रक्षक)! आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए॥4॥