01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दण्ड प्रनामु।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमन्त्र कहँ रामु॥148॥
मूल
देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दण्ड प्रनामु।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमन्त्र कहँ रामु॥148॥
भावार्थ
मन्त्री ने देखकर ‘जयजीव’ कहकर दण्डवत् प्रणाम किया। सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले- सुमन्त्र! कहो, राम कहाँ हैं ?॥148॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूप सुमन्त्रु लीन्ह उर लाई। बूडत कछु अधार जनु पाई॥
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥1॥
मूल
भूप सुमन्त्रु लीन्ह उर लाई। बूडत कछु अधार जनु पाई॥
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥1॥
भावार्थ
राजा ने सुमन्त्र को हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मन्त्री को स्नेह के साथ पास बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा पूछने लगे-॥1॥
राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥2॥
मूल
राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥2॥
भावार्थ
हे मेरे प्रेमी सखा! श्री राम की कुशल कहो। बताओ, श्री राम, लक्ष्मण और जानकी कहाँ हैं? उन्हें लौटा लाए हो कि वे वन को चले गए? यह सुनते ही मन्त्री के नेत्रों में जल भर आया॥2॥
सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू। कहु सिय राम लखन सन्देसू॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥3॥
मूल
सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू। कहु सिय राम लखन सन्देसू॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥3॥
भावार्थ
शोक से व्याकुल होकर राजा फिर पूछने लगे- सीता, राम और लक्ष्मण का सन्देसा तो कहो। श्री रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को याद कर-करके राजा हृदय में सोच करते हैं॥3॥
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड मोहि समाना॥4॥
मूल
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड मोहि समाना॥4॥
भावार्थ
(और कहते हैं-) मैन्ने राजा होने की बात सुनाकर वनवास दे दिया, यह सुनकर भी जिस (राम) के मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ, ऐसे पुत्र के बिछुडने पर भी मेरे प्राण नहीं गए, तब मेरे समान बडा पापी कौन होगा ?॥4॥