145

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि।
उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि॥145॥

मूल

धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि।
उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि॥145॥

भावार्थ

नगर के सब व्याकुल स्त्री-पुरुष जब दौडकर मुझसे पूछेङ्गे, तब मैं हृदय पर वज्र रखकर सबको उत्तर दूँगा॥145॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता।
पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी॥1॥

मूल

पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता।
पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी॥1॥

भावार्थ

जब दीन-दुःखी सब माताएँ पूछेङ्गी, तब हे विधाता! मैं उन्हें क्या कहूँगा? जब लक्ष्मणजी की माता मुझसे पूछेङ्गी, तब मैं उन्हें कौन सा सुखदायी सँदेसा कहूँगा?॥1॥

राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई॥
पूँछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही॥2॥

मूल

राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई॥
पूँछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही॥2॥

भावार्थ

श्री रामजी की माता जब इस प्रकार दौडी आवेङ्गी जैसे नई ब्यायी हुई गौ बछडे को याद करके दौडी आती है, तब उनके पूछने पर मैं उन्हें यह उत्तर दूँगा कि श्री राम, लक्ष्मण, सीता वन को चले गए!॥2॥

जोई पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा। जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा॥
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना॥3॥

मूल

जोई पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा। जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा॥
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना॥3॥

भावार्थ

जो भी पूछेगा उसे यही उत्तर देना पडेगा! हाय! अयोध्या जाकर अब मुझे यही सुख लेना है! जब दुःख से दीन महाराज, जिनका जीवन श्री रघुनाथजी के (दर्शन के) ही अधीन है, मुझसे पूछेङ्गे,॥3॥

देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू॥4॥

मूल

देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू॥4॥

भावार्थ

तब मैं कौन सा मुँह लेकर उन्हें उत्तर दूँगा कि मैं राजकुमारों को कुशल पूर्वक पहुँचा आया हूँ! लक्ष्मण, सीता और श्रीराम का समाचार सुनते ही महाराज तिनके की तरह शरीर को त्याग देङ्गे॥4॥