01 दोहा
बिप्र बिबेकी बेदबिद सम्मत साधु सुजाति।
जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति॥144॥
मूल
बिप्र बिबेकी बेदबिद सम्मत साधु सुजाति।
जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति॥144॥
भावार्थ
जैसे कोई विवेकशील, वेद का ज्ञाता, साधुसम्मत आचरणों वाला और उत्तम जाति का (कुलीन) ब्राह्मण धोखे से मदिरा पी ले और पीछे पछतावे, उसी प्रकार मन्त्री सुमन्त्र सोच कर रहे (पछता रहे) हैं॥144॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी॥
रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहू॥1॥
मूल
जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी॥
रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहू॥1॥
भावार्थ
जैसे किसी उत्तम कुलवाली, साधु स्वाभाव की, समझदार और मन, वचन, कर्म से पति को ही देवता मानने वाली पतिव्रता स्त्री को भाग्यवश पति को छोडकर (पति से अलग) रहना पडे, उस समय उसके हृदय में जैसे भयानक सन्ताप होता है, वैसे ही मन्त्री के हृदय में हो रहा है॥1॥
लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी॥
सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी॥2॥
मूल
लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी॥
सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी॥2॥
भावार्थ
नेत्रों में जल भरा है, दृष्टि मन्द हो गई है। कानों से सुनाई नहीं पडता, व्याकुल हुई बुद्धि बेठिकाने हो रही है। होठ सूख रहे हैं, मुँह में लाटी लग गई है, किन्तु (ये सब मृत्यु के लक्षण हो जाने पर भी) प्राण नहीं निकलते, क्योङ्कि हृदय में अवधि रूपी किवाड लगे हैं (अर्थात चौदह वर्ष बीत जाने पर भगवान फिर मिलेङ्गे, यही आशा रुकावट डाल रही है)॥2॥
बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहुँ पिता महतारी॥
हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पन्थ सोच जिमि पापी॥3॥
मूल
बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहुँ पिता महतारी॥
हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पन्थ सोच जिमि पापी॥3॥
भावार्थ
सुमन्त्रजी के मुख का रङ्ग बदल गया है, जो देखा नहीं जाता। ऐसा मालूम होता है मानो इन्होन्ने माता-पिता को मार डाला हो। उनके मन में रामवियोग रूपी हानि की महान ग्लानि (पीडा) छा रही है, जैसे कोई पापी मनुष्य नरक को जाता हुआ रास्ते में सोच कर रहा हो॥3॥
बचनु न आव हृदयँ पछिताई। अवध काह मैं देखब जाई॥
राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई॥4॥
मूल
बचनु न आव हृदयँ पछिताई। अवध काह मैं देखब जाई॥
राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई॥4॥
भावार्थ
मुँह से वचन नहीं निकलते। हृदय में पछताते हैं कि मैं अयोध्या में जाकर क्या देखूँगा? श्री रामचन्द्रजी से शून्य रथ को जो भी देखेगा, वही मुझे देखने में सङ्कोच करेगा (अर्थात मेरा मुँह नहीं देखना चाहेगा)॥4॥