01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
भयउ निषादु बिषादबस देखत सचिव तुरङ्ग।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी सङ्ग॥143॥
मूल
भयउ निषादु बिषादबस देखत सचिव तुरङ्ग।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी सङ्ग॥143॥
भावार्थ
मन्त्री और घोडों की यह दशा देखकर निषादराज विषाद के वश हो गया। तब उसने अपने चार उत्तम सेवक बुलाकर सारथी के साथ कर दिए॥143॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥
चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥1॥
मूल
गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥
चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥1॥
भावार्थ
निषादराज गुह सारथी (सुमन्त्रजी) को पहुँचाकर (विदा करके) लौटा। उसके विरह और दुःख का वर्णन नहीं किया जा सकता। वे चारों निषाद रथ लेकर अवध को चले। (सुमन्त्र और घोडों को देख-देखकर) वे भी क्षण-क्षणभर विषाद में डूबे जाते थे॥1॥
सोच सुमन्त्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥
रहिहि न अन्तहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥2॥
मूल
सोच सुमन्त्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥
रहिहि न अन्तहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥2॥
भावार्थ
व्याकुल और दुःख से दीन हुए सुमन्त्रजी सोचते हैं कि श्री रघुवीर के बिना जीना धिक्कार है। आखिर यह अधम शरीर रहेगा तो है ही नहीं। अभी श्री रामचन्द्रजी के बिछुडते ही छूटकर इसने यश (क्यों) नहीं ले लिया॥2॥
भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना॥
अहह मन्द मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥3॥
मूल
भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना॥
अहह मन्द मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥3॥
भावार्थ
ये प्राण अपयश और पाप के भाँडे हो गए। अब ये किस कारण कूच नहीं करते (निकलते नहीं)? हाय! नीच मन (बडा अच्छा) मौका चूक गया। अब भी तो हृदय के दो टुकडे नहीं हो जाते!॥3॥
मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनहुँ कृपन धन रासि गवाँई॥
बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई॥4॥
मूल
मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनहुँ कृपन धन रासि गवाँई॥
बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई॥4॥
भावार्थ
सुमन्त्र हाथ मल-मलकर और सिर पीट-पीटकर पछताते हैं। मानो कोई कञ्जूस धन का खजाना खो बैठा हो। वे इस प्रकार चले मानो कोई बडा योद्धा वीर का बाना पहनकर और उत्तम शूरवीर कहलाकर युद्ध से भाग चला हो!॥4॥