142

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नहिं तृन चरहिं न पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।
ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि॥142॥

मूल

नहिं तृन चरहिं न पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।
ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि॥142॥

भावार्थ

वे न तो घास चरते हैं, न पानी पीते हैं। केवल आँखों से जल बहा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी के घोडों को इस दशा में देखकर सब निषाद व्याकुल हो गए॥142॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरि धीरजु तब कहइ निषादू। अब सुमन्त्र परिहरहु बिषादू॥
तुम्ह पण्डित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥1॥

मूल

धरि धीरजु तब कहइ निषादू। अब सुमन्त्र परिहरहु बिषादू॥
तुम्ह पण्डित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥1॥

भावार्थ

तब धीरज धरकर निषादराज कहने लगा- हे सुमन्त्रजी! अब विषाद को छोडिए। आप पण्डित और परमार्थ के जानने वाले हैं। विधाता को प्रतिकूल जानकर धैर्य धारण कीजिए॥1॥

बिबिधि कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी॥
सोक सिथिल रथु सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी॥2॥

मूल

बिबिधि कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी॥
सोक सिथिल रथु सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी॥2॥

भावार्थ

कोमल वाणी से भाँति-भाँति की कथाएँ कहकर निषाद ने जबर्दस्ती लाकर सुमन्त्र को रथ पर बैठाया, परन्तु शोक के मारे वे इतने शिथिल हो गए कि रथ को हाँक नहीं सकते। उनके हृदय में श्री रामचन्द्रजी के विरह की बडी तीव्र वेदना है॥2॥

चरफराहिं मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥
अढुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें॥3॥

मूल

चरफराहिं मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥
अढुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें॥3॥

भावार्थ

घोडे तडफडाते हैं और (ठीक) रास्ते पर नहीं चलते। मानो जङ्गली पशु लाकर रथ में जोत दिए गए हों। वे श्री रामचन्द्रजी के वियोगी घोडे कभी ठोकर खाकर गिर पडते हैं, कभी घूमकर पीछे की ओर देखने लगते हैं। वे तीक्ष्ण दुःख से व्याकुल हैं॥3॥

जो कह रामु लखनु बैदेही। हिङ्करि हिङ्करि हित हेरहिं तेही॥
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहिं भाँती॥4॥

मूल

जो कह रामु लखनु बैदेही। हिङ्करि हिङ्करि हित हेरहिं तेही॥
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहिं भाँती॥4॥

भावार्थ

जो कोई राम, लक्ष्मण या जानकी का नाम ले लेता है, घोडे हिकर-हिकरकर उसकी ओर प्यार से देखने लगते हैं। घोडों की विरह दशा कैसे कही जा सकती है? वे ऐसे व्याकुल हैं, जैसे मणि के बिना साँप व्याकुल होता है॥4॥