01 दोहा
रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।
जिमि बासव बस अमरपुर सची जयन्त समेत॥141॥
मूल
रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।
जिमि बासव बस अमरपुर सची जयन्त समेत॥141॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी और सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हैं, जैसे अमरावती में इन्द्र अपनी पत्नी शची और पुत्र जयन्त सहित बसता है॥141॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोगवहिं प्रभुसिय लखनहि कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें॥
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥1॥
मूल
जोगवहिं प्रभुसिय लखनहि कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें॥
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥1॥
भावार्थ
प्रभु श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी की कैसी सँभाल रखते हैं, जैसे पलकें नेत्रों के गोलकों की। इधर लक्ष्मणजी श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी की (अथवा लक्ष्मणजी और सीताजी श्री रामचन्द्रजी की) ऐसी सेवा करते हैं, जैसे अज्ञानी मनुष्य शरीर की करते हैं॥1॥
एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी॥
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमन्त्र अवध जिमि आवा॥2॥
मूल
एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी॥
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमन्त्र अवध जिमि आवा॥2॥
भावार्थ
पक्षी, पशु, देवता और तपस्वियों के हितकारी प्रभु इस प्रकार सुखपूर्वक वन में निवास कर रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं- मैन्ने श्री रामचन्द्रजी का सुन्दर वनगमन कहा। अब जिस तरह सुमन्त्र अयोध्या में आए वह (कथा) सुनो॥2॥
फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई॥
मन्त्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥3॥
मूल
फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई॥
मन्त्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥3॥
भावार्थ
प्रभु श्री रामचन्द्रजी को पहुँचाकर जब निषादराज लौटा, तब आकर उसने रथ को मन्त्री (सुमन्त्र) सहित देखा। मन्त्री को व्याकुल देखकर निषाद को जैसा दुःख हुआ, वह कहा नहीं जाता॥3॥
राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी॥
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पङ्ख बिहग अकुलाहीं॥4॥
मूल
राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी॥
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पङ्ख बिहग अकुलाहीं॥4॥
भावार्थ
(निषाद को अकेले आया देखकर) सुमन्त्र हा राम! हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण! पुकारते हुए, बहुत व्याकुल होकर धरती पर गिर पडे। (रथ के) घोडे दक्षिण दिशा की ओर (जिधर श्री रामचन्द्रजी गए थे) देख-देखकर हिनहिनाते हैं। मानो बिना पङ्ख के पक्षी व्याकुल हो रहे हों॥4॥