01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥136॥
मूल
बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥136॥
भावार्थ
जो वेदों के वचन और मुनियों के मन को भी अगम हैं, वे करुणा के धाम प्रभु श्री रामचन्द्रजी भीलों के वचन इस तरह सुन रहे हैं, जैसे पिता बालकों के वचन सुनता है॥136॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥
राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥1॥
मूल
रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥
राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥1॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी को केवल प्रेम प्यारा है, जो जानने वाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब श्री रामचन्द्रजी ने प्रेम से परिपुष्ट हुए (प्रेमपूर्ण) कोमल वचन कहकर उन सब वन में विचरण करने वाले लोगों को सन्तुष्ट किया॥1॥
बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए॥
एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥2॥
मूल
बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए॥
एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥2॥
भावार्थ
फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले और प्रभु के गुण कहते-सुनते घर आए। इस प्रकार देवता और मुनियों को सुख देने वाले दोनों भाई सीताजी समेत वन में निवास करने लगे॥2॥
जब तें आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मङ्गलदायकु॥
फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना। मञ्जु बलित बर बेलि बिताना॥3॥
मूल
जब तें आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मङ्गलदायकु॥
फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना। मञ्जु बलित बर बेलि बिताना॥3॥
भावार्थ
जब से श्री रघुनाथजी वन में आकर रहे तब से वन मङ्गलदायक हो गया। अनेक प्रकार के वृक्ष फूलते और फलते हैं और उन पर लिपटी हुई सुन्दर बेलों के मण्डप तने हैं॥3॥
सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए॥
गुञ्ज मञ्जुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी॥4॥
मूल
सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए॥
गुञ्ज मञ्जुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी॥4॥
भावार्थ
वे कल्पवृक्ष के समान स्वाभाविक ही सुन्दर हैं। मानो वे देवताओं के वन (नन्दन वन) को छोडकर आए हों। भौंरों की पङ्क्तियाँ बहुत ही सुन्दर गुञ्जार करती हैं और सुख देने वाली शीतल, मन्द, सुगन्धित हवा चलती रहती है॥4॥