126

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह॥126॥

मूल

राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह॥126॥

भावार्थ

हे राम! आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरन्तर उसका ‘नेति-नेति’ कहकर वर्णन करते हैं॥126॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि सम्भु नचावनिहारे॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥1॥

मूल

जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि सम्भु नचावनिहारे॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥1॥

भावार्थ

हे राम! जगत दृश्य है, आप उसके देखने वाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शङ्कर को भी नचाने वाले हैं। जब वे भी आपके मर्म को नहीं जानते, तब और कौन आपको जानने वाला है?॥1॥

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनन्दन। जानहिं भगत भगत उर चन्दन॥2॥

मूल

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनन्दन। जानहिं भगत भगत उर चन्दन॥2॥

भावार्थ

वही आपको जानता है, जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनन्दन! हे भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले चन्दन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं॥2॥

चिदानन्दमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥
नर तनु धरेहु सन्त सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥3॥

मूल

चिदानन्दमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥
नर तनु धरेहु सन्त सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥3॥

भावार्थ

आपकी देह चिदानन्दमय है (यह प्रकृतिजन्य पञ्च महाभूतों की बनी हुई कर्म बन्धनयुक्त, त्रिदेह विशिष्ट मायिक नहीं है) और (उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय आदि) सब विकारों से रहित है, इस रहस्य को अधिकारी पुरुष ही जानते हैं। आपने देवता और सन्तों के कार्य के लिए (दिव्य) नर शरीर धारण किया है और प्राकृत (प्रकृति के तत्वों से निर्मित देह वाले, साधारण) राजाओं की तरह से कहते और करते हैं॥3॥

राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड मोहहिं बुध होहिं सुखारे॥
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा॥4॥

मूल

राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड मोहहिं बुध होहिं सुखारे॥
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा॥4॥

भावार्थ

हे राम! आपके चरित्रों को देख और सुनकर मूर्ख लोग तो मोह को प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन सुखी होते हैं। आप जो कुछ कहते, करते हैं, वह सब सत्य (उचित) ही है, क्योङ्कि जैसा स्वाँग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिए (इस समय आप मनुष्य रूप में हैं, अतः मनुष्योचित व्यवहार करना ठीक ही है।)॥4॥