118

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ।
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ॥118॥

मूल

लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ।
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ॥118॥

भावार्थ

तब लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित श्री रघुनाथजी ने गमन किया और सब लोगों को प्रिय वचन कहकर लौटाया, किन्तु उनके मनों को अपने साथ ही लगा लिया॥118॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

फिरत नारि नर अति पछिताहीं। दैअहि दोषु देहिं मन माहीं॥
सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥1॥

मूल

फिरत नारि नर अति पछिताहीं। दैअहि दोषु देहिं मन माहीं॥
सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥1॥

भावार्थ

लौटते हुए वे स्त्री-पुरुष बहुत ही पछताते हैं और मन ही मन दैव को दोष देते हैं। परस्पर (बडे ही) विषाद के साथ कहते हैं कि विधाता के सभी काम उलटे हैं॥1॥

निपट निरङ्कुस निठुर निसङ्कू। जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलङ्कू॥
रूख कलपतरु सागरु खारा। तेहिं पठए बन राजकुमारा॥2॥

मूल

निपट निरङ्कुस निठुर निसङ्कू। जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलङ्कू॥
रूख कलपतरु सागरु खारा। तेहिं पठए बन राजकुमारा॥2॥

भावार्थ

वह विधाता बिल्कुल निरङ्कुश (स्वतन्त्र), निर्दय और निडर है, जिसने चन्द्रमा को रोगी (घटने-बढने वाला) और कलङ्की बनाया, कल्पवृक्ष को पेड और समुद्र को खारा बनाया। उसी ने इन राजकुमारों को वन में भेजा है॥2॥

जौं पै इन्हहिं दीन्ह बनबासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू॥
ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना॥3॥

मूल

जौं पै इन्हहिं दीन्ह बनबासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू॥
ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना॥3॥

भावार्थ

जब विधाता ने इनको वनवास दिया है, तब उसने भोग-विलास व्यर्थ ही बनाए। जब ये बिना जूते के (नङ्गे ही पैरों) रास्ते में चल रहे हैं, तब विधाता ने अनेकों वाहन (सवारियाँ) व्यर्थ ही रचे॥3॥

ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता॥
तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा॥4॥

मूल

ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता॥
तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा॥4॥

भावार्थ

जब ये कुश और पत्ते बिछाकर जमीन पर ही पडे रहते हैं, तब विधाता सुन्दर सेज (पलङ्ग और बिछौने) किसलिए बनाता है? विधाता ने जब इनको बडे-बडे पेडों (के नीचे) का निवास दिया, तब उज्ज्वल महलों को बना-बनाकर उसने व्यर्थ ही परिश्रम किया॥4॥