116

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्यामल गौर किसोर बर सुन्दर सुषमा ऐन।
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन॥116॥

मूल

स्यामल गौर किसोर बर सुन्दर सुषमा ऐन।
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन॥116॥

भावार्थ

श्याम और गौर वर्ण है, सुन्दर किशोर अवस्था है, दोनों ही परम सुन्दर और शोभा के धाम हैं। शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान इनके मुख और शरद ऋतु के कमल के समान इनके नेत्र हैं॥116॥

मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, चौथा विश्राम

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥
सुनि सनेहमय मञ्जुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥1॥

मूल

कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥
सुनि सनेहमय मञ्जुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥1॥

भावार्थ

हे सुमुखि! कहो तो अपनी सुन्दरता से करोडों कामदेवों को लजाने वाले ये तुम्हारे कौन हैं? उनकी ऐसी प्रेममयी सुन्दर वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गईं और मन ही मन मुस्कुराईं॥1॥

तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचति बरबरनी॥
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी॥2॥

मूल

तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचति बरबरनी॥
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी॥2॥

भावार्थ

उत्तम (गौर) वर्णवाली सीताजी उनको देखकर (सङ्कोचवश) पृथ्वी की ओर देखती हैं। वे दोनों ओर के सङ्कोच से सकुचा रही हैं (अर्थात न बताने में ग्राम की स्त्रियों को दुःख होने का सङ्कोच है और बताने में लज्जा रूप सङ्कोच)। हिरन के बच्चे के सदृश नेत्र वाली और कोकिल की सी वाणी वाली सीताजी सकुचाकर प्रेम सहित मधुर वचन बोलीं-॥2॥

सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे॥
बहुरि बदनु बिधु अञ्चल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी॥3॥

मूल

सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे॥
बहुरि बदनु बिधु अञ्चल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी॥3॥

भावार्थ

ये जो सहज स्वभाव, सुन्दर और गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है, ये मेरे छोटे देवर हैं। फिर सीताजी ने (लज्जावश) अपने चन्द्रमुख को आँचल से ढँककर और प्रियतम (श्री रामजी) की ओर निहारकर भौंहें टेढी करके,॥3॥

खञ्जन मञ्जु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि॥
भईं मुदित सब ग्रामबधूटीं। रङ्कन्ह राय रासि जनु लूटीं॥4॥

मूल

खञ्जन मञ्जु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि॥
भईं मुदित सब ग्रामबधूटीं। रङ्कन्ह राय रासि जनु लूटीं॥4॥

भावार्थ

खञ्जन पक्षी के से सुन्दर नेत्रों को तिरछा करके सीताजी ने इशारे से उन्हें कहा कि ये (श्री रामचन्द्रजी) मेरे पति हैं। यह जानकर गाँव की सब युवती स्त्रियाँ इस प्रकार आनन्दित हुईं, मानो कङ्गालों ने धन की राशियाँ लूट ली हों॥4॥