01 दोहा
तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह॥
राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेइँ कीन्ह॥111॥
मूल
तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह॥
राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेइँ कीन्ह॥111॥
भावार्थ
तब श्री रामचन्द्रजी ने सखा गुह को अनेकों तरह से (घर लौट जाने के लिए) समझाया। श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा को सिर चढाकर उसने अपने घर को गमन किया॥111॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि सियँ राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी॥
चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बडाई॥1॥
मूल
पुनि सियँ राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी॥
चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बडाई॥1॥
भावार्थ
फिर सीताजी, श्री रामजी और लक्ष्मणजी ने हाथ जोडकर यमुनाजी को पुनः प्रणाम किया और सूर्यकन्या यमुनाजी की बडाई करते हुए सीताजी सहित दोनों भाई प्रसन्नतापूर्वक आगे चले॥1॥
पथिक अनेक मिलहिं मग जाता। कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता॥
राज लखन सब अङ्ग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारें॥2॥
मूल
पथिक अनेक मिलहिं मग जाता। कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता॥
राज लखन सब अङ्ग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारें॥2॥
भावार्थ
रास्ते में जाते हुए उन्हें अनेकों यात्री मिलते हैं। वे दोनों भाइयों को देखकर उनसे प्रेमपूर्वक कहते हैं कि तुम्हारे सब अङ्गों में राज चिह्न देखकर हमारे हृदय में बडा सोच होता है॥2॥
मारग चलहु पयादेहि पाएँ। ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ॥
अगमु पन्थु गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी॥3॥
मूल
मारग चलहु पयादेहि पाएँ। ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ॥
अगमु पन्थु गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी॥3॥
भावार्थ
(ऐसे राजचिह्नों के होते हुए भी) तुम लोग रास्ते में पैदल ही चल रहे हो, इससे हमारी समझ में आता है कि ज्योतिष शास्त्र झूठा ही है। भारी जङ्गल और बडे-बडे पहाडों का दुर्गम रास्ता है। तिस पर तुम्हारे साथ सुकुमारी स्त्री है॥3॥
करि केहरि बन जाइ न जोई। हम सँग चलहिं जो आयसु होई॥
जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई॥4॥
मूल
करि केहरि बन जाइ न जोई। हम सँग चलहिं जो आयसु होई॥
जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई॥4॥
भावार्थ
हाथी और सिंहों से भरा यह भयानक वन देखा तक नहीं जाता। यदि आज्ञा हो तो हम साथ चलें। आप जहाँ तक जाएँगे, वहाँ तक पहुँचाकर, फिर आपको प्रणाम करके हम लौट आवेङ्गे॥4॥