110

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि।
परेउ दण्ड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि॥110॥

मूल

सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि।
परेउ दण्ड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि॥110॥

भावार्थ

अपने इष्टदेव को पहचानकर उसके नेत्रों में जल भर आया और शरीर पुलकित हो गया। वह दण्ड की भाँति पृथ्वी पर गिर पडा, उसकी (प्रेम विह्वल) दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता॥110॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रङ्क जनु पारसु पावा॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥1॥

मूल

राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रङ्क जनु पारसु पावा॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी ने प्रेमपूर्वक पुलकित होकर उसको हृदय से लगा लिया। (उसे इतना आनन्द हुआ) मानो कोई महादरिद्री मनुष्य पारस पा गया हो। सब कोई (देखने वाले) कहने लगे कि मानो प्रेम और परमार्थ (परम तत्व) दोनों शरीर धारण करके मिल रहे हैं॥1॥

बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा। लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा॥2॥

मूल

बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा। लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा॥2॥

भावार्थ

फिर वह लक्ष्मणजी के चरणों लगा। उन्होन्ने प्रेम से उमङ्गकर उसको उठा लिया। फिर उसने सीताजी की चरण धूलि को अपने सिर पर धारण किया। माता सीताजी ने भी उसको अपना बच्चा जानकर आशीर्वाद दिया॥2॥

कीन्ह निषाद दण्डवत तेही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही॥
पिअत नयन पुट रूपु पियुषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा॥3॥

मूल

कीन्ह निषाद दण्डवत तेही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही॥
पिअत नयन पुट रूपु पियुषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा॥3॥

भावार्थ

फिर निषादराज ने उसको दण्डवत की। श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी जानकर वह उस (निषाद) से आनन्दित होकर मिला। वह तपस्वी अपने नेत्र रूपी दोनों से श्री रामजी की सौन्दर्य सुधा का पान करने लगा और ऐसा आनन्दित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुन्दर भोजन पाकर आनन्दित होता है॥3॥

ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥
राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी॥4॥

मूल

ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥
राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी॥4॥

भावार्थ

(इधर गाँव की स्त्रियाँ कह रही हैं) हे सखी! कहो तो, वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होन्ने ऐसे (सुन्दर सुकुमार) बालकों को वन में भेज दिया है। श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर सब स्त्री-पुरुष स्नेह से व्याकुल हो जाते हैं॥4॥