106

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनन्दु अस जानि।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि॥106॥

मूल

दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनन्दु अस जानि।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि॥106॥

भावार्थ

मुनीश्वर भरद्वाजजी ने आशीर्वाद दिया। उनके हृदय में ऐसा जानकर अत्यन्त आनन्द हुआ कि आज विधाता ने (श्री सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कराकर) मानो हमारे सम्पूर्ण पुण्यों के फल को लाकर आँखों के सामने कर दिया॥106॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे॥
कन्द मूल फल अङ्कुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥1॥

मूल

कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे॥
कन्द मूल फल अङ्कुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥1॥

भावार्थ

कुशल पूछकर मुनिराज ने उनको आसन दिए और प्रेम सहित पूजन करके उन्हें सन्तुष्ट कर दिया। फिर मानो अमृत के ही बने हों, ऐसे अच्छे-अच्छे कन्द, मूल, फल और अङ्कुर लाकर दिए॥1॥

सीय लखन जन सहित सुहाए। अति रुचि राम मूल फल खाए॥
भए बिगतश्रम रामु सुखारे। भरद्वाज मृदु बचन उचारे॥2॥

मूल

सीय लखन जन सहित सुहाए। अति रुचि राम मूल फल खाए॥
भए बिगतश्रम रामु सुखारे। भरद्वाज मृदु बचन उचारे॥2॥

भावार्थ

सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह सहित श्री रामचन्द्रजी ने उन सुन्दर मूल-फलों को बडी रुचि के साथ खाया। थकावट दूर होने से श्री रामचन्द्रजी सुखी हो गए। तब भरद्वाजजी ने उनसे कोमल वचन कहे-॥2॥

आजु सफल तपु तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू॥
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू॥3॥

मूल

आजु सफल तपु तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू॥
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू॥3॥

भावार्थ

हे राम! आपका दर्शन करते ही आज मेरा तप, तीर्थ सेवन और त्याग सफल हो गया। आज मेरा जप, योग और वैराग्य सफल हो गया और आज मेरे सम्पूर्ण शुभ साधनों का समुदाय भी सफल हो गया॥3॥

लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी। तुम्हरें दरस आस सब पूजी॥
अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू॥4॥

मूल

लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी। तुम्हरें दरस आस सब पूजी॥
अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू॥4॥

भावार्थ

लाभ की सीमा और सुख की सीमा (प्रभु के दर्शन को छोडकर) दूसरी कुछ भी नहीं है। आपके दर्शन से मेरी सब आशाएँ पूर्ण हो गईं। अब कृपा करके यह वरदान दीजिए कि आपके चरण कमलों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो॥4॥