01 दोहा
सेवहिं सुकृती साधु सुचि पावहिं सब मनकाम।
बन्दी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम॥105॥
मूल
सेवहिं सुकृती साधु सुचि पावहिं सब मनकाम।
बन्दी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम॥105॥
भावार्थ
पुण्यात्मा, पवित्र साधु उसकी सेवा करते हैं और सब मनोरथ पाते हैं। वेद और पुराणों के समूह भाट हैं, जो उसके निर्मल गुणगणों का बखान करते हैं॥105॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुञ्ज कुञ्जर मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥1॥
मूल
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुञ्ज कुञ्जर मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥1॥
भावार्थ
पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी ने भी सुख पाया॥1॥
कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्री मुख तीरथराज बडाई॥
करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा॥2॥
मूल
कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्री मुख तीरथराज बडाई॥
करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा॥2॥
भावार्थ
उन्होन्ने अपने श्रीमुख से सीताजी, लक्ष्मणजी और सखा गुह को तीर्थराज की महिमा कहकर सुनाई। तदनन्तर प्रणाम करके, वन और बगीचों को देखते हुए और बडे प्रेम से माहात्म्य कहते हुए-॥2॥
एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमङ्गल देनी॥
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा। पूजि जथाबिधि तीरथ देवा॥3॥
मूल
एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमङ्गल देनी॥
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा। पूजि जथाबिधि तीरथ देवा॥3॥
भावार्थ
इस प्रकार श्री राम ने आकर त्रिवेणी का दर्शन किया, जो स्मरण करने से ही सब सुन्दर मङ्गलों को देने वाली है। फिर आनन्दपूर्वक (त्रिवेणी में) स्नान करके शिवजी की सेवा (पूजा) की और विधिपूर्वक तीर्थ देवताओं का पूजन किया॥3॥
तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए। करत दण्डवत मुनि उर लाए॥
मुनि मन मोद न कछु कहि जाई। ब्रह्मानन्द रासि जनु पाई॥4॥
मूल
तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए। करत दण्डवत मुनि उर लाए॥
मुनि मन मोद न कछु कहि जाई। ब्रह्मानन्द रासि जनु पाई॥4॥
भावार्थ
(स्नान, पूजन आदि सब करके) तब प्रभु श्री रामजी भरद्वाजजी के पास आए। उन्हें दण्डवत करते हुए ही मुनि ने हृदय से लगा लिया। मुनि के मन का आनन्द कुछ कहा नहीं जाता। मानो उन्हें ब्रह्मानन्द की राशि मिल गई हो॥4॥