01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥101॥
मूल
पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥101॥
भावार्थ
चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले (उस महान पुण्य के द्वारा) अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनन्दपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को गङ्गाजी के पार ले गया॥101॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
उतरि ठाढ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥
केवट उतरि दण्डवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥
मूल
उतरि ठाढ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥
केवट उतरि दण्डवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥
भावार्थ
निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी (नाव से) उतरकर गङ्गाजी की रेत (बालू) में खडे हो गए। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। (उसको दण्डवत करते देखकर) प्रभु को सङ्कोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं॥1॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥2॥
मूल
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥2॥
भावार्थ
पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनन्द भरे मन से अपनी रत्न जडित अँगूठी (अँगुली से) उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड लिए॥2॥
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥3॥
मूल
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥3॥
भावार्थ
(उसने कहा-) हे नाथ! आज मैन्ने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैन्ने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी॥3॥
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥4॥
मूल
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥4॥
भावार्थ
हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देङ्गे, वह प्रसाद मैं सिर चढाकर लूँगा॥4॥