01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मइकें ससुरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान।
तहँ तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान॥96॥
मूल
मइकें ससुरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान।
तहँ तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान॥96॥
भावार्थ
सीता के मायके (पिता के घर) और ससुराल में सब सुख हैं। जब तक यह विपत्ति दूर नहीं होती, तब तक वे जब जहाँ जी चाहें, वहीं सुख से रहेङ्गी॥96॥
02 चौपाई
बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती॥
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥1॥
मूल
बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती॥
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥1॥
भावार्थ
राजा ने जिस तरह (जिस दीनता और प्रेम से) विनती की है, वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता। कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी ने पिता का सन्देश सुनकर सीताजी को करोडों (अनेकों) प्रकार से सीख दी॥1॥
सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरहु त सब कर मिटै खभारू॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही॥2॥
मूल
सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरहु त सब कर मिटै खभारू॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही॥2॥
भावार्थ
(उन्होन्ने कहा-) जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन एवं कुटुम्बी सबकी चिन्ता मिट जाए। पति के वचन सुनकर जानकीजी कहती हैं- हे प्राणपति! हे परम स्नेही! सुनिए॥2॥
प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेङ्की॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चन्द्रिका चन्दु तजि जाई॥3॥
मूल
प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेङ्की॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चन्द्रिका चन्दु तजि जाई॥3॥
भावार्थ
हे प्रभो! आप करुणामय और परम ज्ञानी हैं। (कृपा करके विचार तो कीजिए) शरीर को छोडकर छाया अलग कैसे रोकी रह सकती है? सूर्य की प्रभा सूर्य को छोडकर कहाँ जा सकती है? और चाँदनी चन्द्रमा को त्यागकर कहाँ जा सकती है?॥3॥
पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥4॥
मूल
पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥4॥
भावार्थ
इस प्रकार पति को प्रेममयी विनती सुनाकर सीताजी मन्त्री से सुहावनी वाणी कहने लगीं- आप मेरे पिताजी और ससुरजी के समान मेरा हित करने वाले हैं। आपको मैं बदले में उत्तर देती हूँ, यह बहुत ही अनुचित है॥4॥