095

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिन्ता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि॥95॥

मूल

पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिन्ता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि॥95॥

भावार्थ

आप जाकर पिताजी के चरण पकडकर करोडों नमस्कार के साथ ही हाथ जोडकर बिनती करिएगा कि हे तात! आप मेरी किसी बात की चिन्ता न करें॥95॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥1॥

मूल

तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥1॥

भावार्थ

आप भी पिता के समान ही मेरे बडे हितैषी हैं। हे तात! मैं हाथ जोडकर आप से विनती करता हूँ कि आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है, जिसमें पिताजी हम लोगों के सोच में दुःख न पावें॥1॥

सुनि रघुनाथ सचिव सम्बादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड अनुचित जानी॥2॥

मूल

सुनि रघुनाथ सचिव सम्बादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड अनुचित जानी॥2॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी और सुमन्त्र का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुम्बियों सहित व्याकुल हो गया। फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कडवी बात कही। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने उसे बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया॥2॥

सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई॥
कह सुमन्त्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥3॥

मूल

सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई॥
कह सुमन्त्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥3॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने सकुचाकर, अपनी सौगन्ध दिलाकर सुमन्त्रजी से कहा कि आप जाकर लक्ष्मण का यह सन्देश न कहिएगा। सुमन्त्र ने फिर राजा का सन्देश कहा कि सीता वन के क्लेश न सह सकेङ्गी॥3॥

जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। होइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया॥
नतरु निपट अवलम्ब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥4॥

मूल

जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। होइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया॥
नतरु निपट अवलम्ब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥4॥

भावार्थ

अतएव जिस तरह सीता अयोध्या को लौट आवें, तुमको और श्री रामचन्द्र को वही उपाय करना चाहिए। नहीं तो मैं बिल्कुल ही बिना सहारे का होकर वैसे ही नहीं जीऊँगा जैसे बिना जल के मछली नहीं जीती॥4॥