01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैकयनन्दिनि मन्दमति कठिन कुटिलपन कीन्ह।
जेहिं रघुनन्दन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥91॥
मूल
कैकयनन्दिनि मन्दमति कठिन कुटिलपन कीन्ह।
जेहिं रघुनन्दन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥91॥
भावार्थ
कैकयराज की लडकी नीच बुद्धि कैकेयी ने बडी ही कुटिलता की, जिसने रघुनन्दन श्री रामजी और जानकीजी को सुख के समय दुःख दिया॥91॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी॥
भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥1॥
मूल
भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी॥
भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥1॥
भावार्थ
वह सूर्यकुल रूपी वृक्ष के लिए कुल्हाडी हो गई। उस कुबुद्धि ने सम्पूर्ण विश्व को दुःखी कर दिया। श्री राम-सीता को जमीन पर सोते हुए देखकर निषाद को बडा दुःख हुआ॥1॥
बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥2॥
मूल
बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥2॥
भावार्थ
तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले- हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥2॥
जोग बियोग भोग भल मन्दा। हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। सम्पति बिपति करमु अरु कालू॥3॥
मूल
जोग बियोग भोग भल मन्दा। हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। सम्पति बिपति करमु अरु कालू॥3॥
भावार्थ
संयोग (मिलना), वियोग (बिछुडना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन- ये सभी भ्रम के फन्दे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल- जहाँ तक जगत के जञ्जाल हैं,॥3॥
दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥4॥
मूल
दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥4॥
भावार्थ
धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अन्दर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं॥4॥