01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु।
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु॥88॥
मूल
बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु।
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु॥88॥
भावार्थ
(उनकी आज्ञानुसार) मुझे चौदह वर्ष तक मुनियों का व्रत और वेष धारण कर और मुनियों के योग्य आहार करते हुए वन में ही बसना है, गाँव के भीतर निवास करना उचित नहीं है। यह सुनकर गुह को बडा दुःख हुआ॥88॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥1॥
मूल
राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥1॥
भावार्थ
श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर गाँव के स्त्री-पुरुष प्रेम के साथ चर्चा करते हैं। (कोई कहती है-) हे सखी! कहो तो, वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होन्ने ऐसे (सुन्दर सुकुमार) बालकों को वन में भेज दिया है॥1॥
एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा॥
तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥2॥
मूल
एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा॥
तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥2॥
भावार्थ
कोई एक कहते हैं- राजा ने अच्छा ही किया, इसी बहाने हमें भी ब्रह्मा ने नेत्रों का लाभ दिया। तब निषाद राज ने हृदय में अनुमान किया, तो अशोक के पेड को (उनके ठहरने के लिए) मनोहर समझा॥2॥
लै रघुनाथहिं ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा॥
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर सन्ध्या करन सिधाए॥3॥
मूल
लै रघुनाथहिं ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा॥
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर सन्ध्या करन सिधाए॥3॥
भावार्थ
उसने श्री रघुनाथजी को ले जाकर वह स्थान दिखाया। श्री रामचन्द्रजी ने (देखकर) कहा कि यह सब प्रकार से सुन्दर है। पुरवासी लोग जोहार (वन्दना) करके अपने-अपने घर लौटे और श्री रामचन्द्रजी सन्ध्या करने पधारे॥3॥
गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी॥4॥
मूल
गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी॥4॥
भावार्थ
गुह ने (इसी बीच) कुश और कोमल पत्तों की कोमल और सुन्दर साथरी सजाकर बिछा दी और पवित्र, मीठे और कोमल देख-देखकर दोनों में भर-भरकर फल-मूल और पानी रख दिया (अथवा अपने हाथ से फल-मूल दोनों में भर-भरकर रख दिए)॥4॥