01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर।
पिक रथाङ्ग सुक सारिका सारस हंस चकोर॥83॥
मूल
हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर।
पिक रथाङ्ग सुक सारिका सारस हंस चकोर॥83॥
भावार्थ
करोडों घोडे, हाथी, खेलने के लिए पाले हुए हिरन, नगर के (गाय, बैल, बकरी आदि) पशु, पपीहे, मोर, कोयल, चकवे, तोते, मैना, सारस, हंस और चकोर-॥83॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम बियोग बिकल सब ठाढे। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढे॥
नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥1॥
मूल
राम बियोग बिकल सब ठाढे। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढे॥
नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥1॥
भावार्थ
श्री रामजी के वियोग में सभी व्याकुल हुए जहाँ-तहाँ (ऐसे चुपचाप स्थिर होकर) खडे हैं, मानो तसवीरों में लिखकर बनाए हुए हैं। नगर मानो फलों से परिपूर्ण बडा भारी सघन वन था। नगर निवासी सब स्त्री-पुरुष बहुत से पशु-पक्षी थे। (अर्थात अवधपुरी अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों को देने वाली नगरी थी और सब स्त्री-पुरुष सुख से उन फलों को प्राप्त करते थे।)॥1॥
बिधि कैकई किरातिनि कीन्ही। जेहिं दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही॥
सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी॥2॥
मूल
बिधि कैकई किरातिनि कीन्ही। जेहिं दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही॥
सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी॥2॥
भावार्थ
विधाता ने कैकेयी को भीलनी बनाया, जिसने दसों दिशाओं में दुःसह दावाग्नि (भयानक आग) लगा दी। श्री रामचन्द्रजी के विरह की इस अग्नि को लोग सह न सके। सब लोग व्याकुल होकर भाग चले॥2॥
सबहिं बिचारु कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं॥
जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥3॥
मूल
सबहिं बिचारु कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं॥
जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥3॥
भावार्थ
सबने मन में विचार कर लिया कि श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के बिना सुख नहीं है। जहाँ श्री रामजी रहेङ्गे, वहीं सारा समाज रहेगा। श्री रामचन्द्रजी के बिना अयोध्या में हम लोगों का कुछ काम नहीं है॥3॥
चले साथ अस मन्त्रु दृढाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई॥
राम चरन पङ्कज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही॥4॥
मूल
चले साथ अस मन्त्रु दृढाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई॥
राम चरन पङ्कज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही॥4॥
भावार्थ
ऐसा विचार दृढ करके देवताओं को भी दुर्लभ सुखों से पूर्ण घरों को छोडकर सब श्री रामचन्द्रजी के साथ चले पडे। जिनको श्री रामजी के चरणकमल प्यारे हैं, उन्हें क्या कभी विषय भोग वश में कर सकते हैं॥4॥