01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ।
गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ॥82॥
मूल
पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ।
गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ॥82॥
भावार्थ
सुमन्त्रजी राजा की आज्ञा पाकर, सिर नवाकर और बहुत जल्दी रथ जुडवाकर वहाँ गए, जहाँ नगर के बाहर सीताजी सहित दोनों भाई थे॥82॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब सुमन्त्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढाए॥
चढि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥1॥
मूल
तब सुमन्त्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढाए॥
चढि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥1॥
भावार्थ
तब (वहाँ पहुँचकर) सुमन्त्र ने राजा के वचन श्री रामचन्द्रजी को सुनाए और विनती करके उनको रथ पर चढाया। सीताजी सहित दोनों भाई रथ पर चढकर हृदय में अयोध्या को सिर नवाकर चले॥1॥
चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा॥
कृपासिन्धु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं॥2॥
मूल
चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा॥
कृपासिन्धु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं॥2॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी को जाते हुए और अयोध्या को अनाथ (होते हुए) देखकर सब लोग व्याकुल होकर उनके साथ हो लिए। कृपा के समुद्र श्री रामजी उन्हें बहुत तरह से समझाते हैं, तो वे (अयोध्या की ओर) लौट जाते हैं, परन्तु प्रेमवश फिर लौट आते हैं॥2॥
लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधिआरी॥
घोर जन्तु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी॥3॥
मूल
लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधिआरी॥
घोर जन्तु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी॥3॥
भावार्थ
अयोध्यापुरी बडी डरावनी लग रही है, मानो अन्धकारमयी कालरात्रि ही हो। नगर के नर-नारी भयानक जन्तुओं के समान एक-दूसरे को देखकर डर रहे हैं॥3॥
घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता॥
बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं॥4॥
मूल
घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता॥
बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं॥4॥
भावार्थ
घर श्मशान, कुटुम्बी भूत-प्रेत और पुत्र, हितैषी और मित्र मानो यमराज के दूत हैं। बगीचों में वृक्ष और बेलें कुम्हला रही हैं। नदी और तालाब ऐसे भयानक लगते हैं कि उनकी ओर देखा भी नहीं जाता॥4॥