01 दोहा
सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि।
रथ चढाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि॥81॥
मूल
सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि।
रथ चढाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि॥81॥
भावार्थ
अत्यन्त सुकुमार दोनों कुमारों को और सुकुमारी जानकी को रथ में चढाकर, वन दिखलाकर चार दिन के बाद लौट आना॥81॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसन्ध दृढब्रत रघुराई॥
तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥1॥
मूल
जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसन्ध दृढब्रत रघुराई॥
तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥1॥
भावार्थ
यदि धैर्यवान दोनों भाई न लौटें- क्योङ्कि श्री रघुनाथजी प्रण के सच्चे और दृढता से नियम का पालन करने वाले हैं- तो तुम हाथ जोडकर विनती करना कि हे प्रभो! जनककुमारी सीताजी को तो लौटा दीजिए॥1॥
जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई॥
सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू॥2॥
मूल
जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई॥
सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू॥2॥
भावार्थ
जब सीता वन को देखकर डरें, तब मौका पाकर मेरी यह सीख उनसे कहना कि तुम्हारे सास और ससुर ने ऐसा सन्देश कहा है कि हे पुत्री! तुम लौट चलो, वन में बहुत क्लेश हैं॥2॥
पितुगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी॥
एहि बिधि करेहु उपाय कदम्बा। फिरइ त होइ प्रान अवलम्बा॥3॥
मूल
पितुगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी॥
एहि बिधि करेहु उपाय कदम्बा। फिरइ त होइ प्रान अवलम्बा॥3॥
भावार्थ
कभी पिता के घर, कभी ससुराल, जहाँ तुम्हारी इच्छा हो, वहीं रहना। इस प्रकार तुम बहुत से उपाय करना। यदि सीताजी लौट आईं तो मेरे प्राणों को सहारा हो जाएगा॥3॥
नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भएँ बिधि बामा॥
अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ॥4॥
मूल
नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भएँ बिधि बामा॥
अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ॥4॥
भावार्थ
(नहीं तो अन्त में मेरा मरण ही होगा। विधाता के विपरीत होने पर कुछ वश नहीं चलता। हा! राम, लक्ष्मण और सीता को लाकर दिखाओ। ऐसा कहकर राजा मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पडे॥4॥