079

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बन्धु समेत।
बन्दि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत॥79॥

मूल

सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बन्धु समेत।
बन्दि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत॥79॥

भावार्थ

वन का सब साज-सामान सजकर (वन के लिए आवश्यक वस्तुओं को साथ लेकर) श्री रामचन्द्रजी स्त्री (श्री सीताजी) और भाई (लक्ष्मणजी) सहित, ब्राह्मण और गुरु के चरणों की वन्दना करके सबको अचेत करके चले॥79॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढे। देखे लोग बिरह दव दाढे॥
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृन्द रघुबीर बोलाए॥1॥

मूल

निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढे। देखे लोग बिरह दव दाढे॥
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृन्द रघुबीर बोलाए॥1॥

भावार्थ

राजमहल से निकलकर श्री रामचन्द्रजी वशिष्ठजी के दरवाजे पर जा खडे हुए और देखा कि सब लोग विरह की अग्नि में जल रहे हैं। उन्होन्ने प्रिय वचन कहकर सबको समझाया, फिर श्री रामचन्द्रजी ने ब्राह्मणों की मण्डली को बुलाया॥1॥

गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे॥
जाचक दान मान सन्तोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे॥2॥

मूल

गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे॥
जाचक दान मान सन्तोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे॥2॥

भावार्थ

गुरुजी से कहकर उन सबको वर्षाशन (वर्षभर का भोजन) दिए और आदर, दान तथा विनय से उन्हें वश में कर लिया। फिर याचकों को दान और मान देकर सन्तुष्ट किया तथा मित्रों को पवित्र प्रेम से प्रसन्न किया॥2॥

दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौम्पि बोले कर जोरी॥
सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाईं॥3॥

मूल

दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौम्पि बोले कर जोरी॥
सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाईं॥3॥

भावार्थ

फिर दास-दासियों को बुलाकर उन्हें गुरुजी को सौम्पकर, हाथ जोडकर बोले- हे गुसाईं! इन सबकी माता-पिता के समान सार-सम्भार (देख-रेख) करते रहिएगा॥3॥

बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी॥4॥

मूल

बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी॥4॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी बार-बार दोनों हाथ जोडकर सबसे कोमल वाणी कहते हैं कि मेरा सब प्रकार से हितकारी मित्र वही होगा, जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें॥4॥