01 दोहा
सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।
सरद चन्द चन्दिनि लगत जनु चकई अकुलानि॥78॥
मूल
सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।
सरद चन्द चन्दिनि लगत जनु चकई अकुलानि॥78॥
भावार्थ
यह शीतल, हितकारी, मधुर और कोमल सीख सुनने पर सीताजी को अच्छी नहीं लगी। (वे इस प्रकार व्याकुल हो गईं) मानो शरद ऋतु के चन्द्रमा की चाँदनी लगते ही चकई व्याकुल हो उठी हो॥78॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥
मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी॥1॥
मूल
सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥
मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी॥1॥
भावार्थ
सीताजी सङ्कोचवश उत्तर नहीं देतीं। इन बातों को सुनकर कैकेयी तमककर उठी। उसने मुनियों के वस्त्र, आभूषण (माला, मेखला आदि) और बर्तन (कमण्डलु आदि) लाकर श्री रामचन्द्रजी के आगे रख दिए और कोमल वाणी से कहा-॥1॥
नृपहि प्रानप्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाडिहि भीरा॥
सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥2॥
मूल
नृपहि प्रानप्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाडिहि भीरा॥
सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥2॥
भावार्थ
हे रघुवीर! राजा को तुम प्राणों के समान प्रिय हो। भीरु (प्रेमवश दुर्बल हृदय के) राजा शील और स्नेह नहीं छोडेङ्गे! पुण्य, सुन्दर यश और परलोक चाहे नष्ट हे जाए, पर तुम्हें वन जाने को वे कभी न कहेङ्गे॥2॥
अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा॥
भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे॥3॥
मूल
अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा॥
भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे॥3॥
भावार्थ
ऐसा विचारकर जो तुम्हें अच्छा लगे वही करो। माता की सीख सुनकर श्री रामचन्द्रजी ने (बडा) सुख पाया, परन्तु राजा को ये वचन बाण के समान लगे। (वे सोचने लगे) अब भी अभागे प्राण (क्यों) नहीं निकलते!॥3॥
लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई॥4॥
मूल
लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई॥4॥
भावार्थ
राजा मूर्छित हो गए, लोग व्याकुल हैं। किसी को कुछ सूझ नहीं पडता कि क्या करें। श्री रामचन्द्रजी तुरन्त मुनि का वेष बनाकर और माता-पिता को सिर नवाकर चल दिए॥4॥