01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवन्त गति को जग जानै जोगु॥77॥
मूल
औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवन्त गति को जग जानै जोगु॥77॥
भावार्थ
(किन्तु इस अवसर पर तो इसके विपरीत हो रहा है,) अपराध तो कोई और ही करे और उसके फल का भोग कोई और ही पावे। भगवान की लीला बडी ही विचित्र है, उसे जानने योग्य जगत में कौन है?॥77॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी॥
लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरन्धर धीर सयाने॥1॥
मूल
रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी॥
लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरन्धर धीर सयाने॥1॥
भावार्थ
राजा ने इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी को रखने के लिए छल छोडकर बहुत से उपाय किए, पर जब उन्होन्ने धर्मधुरन्धर, धीर और बुद्धिमान श्री रामजी का रुख देख लिया और वे रहते हुए न जान पडे,॥1॥
तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही॥
कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए॥2॥
मूल
तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही॥
कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए॥2॥
भावार्थ
तब राजा ने सीताजी को हृदय से लगा लिया और बडे प्रेम से बहुत प्रकार की शिक्षा दी। वन के दुःसह दुःख कहकर सुनाए। फिर सास, ससुर तथा पिता के (पास रहने के) सुखों को समझाया॥2॥
सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरुन सुगमु बनु बिषमु न लागा॥
औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई॥3॥
मूल
सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरुन सुगमु बनु बिषमु न लागा॥
औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई॥3॥
भावार्थ
परन्तु सीताजी का मन श्री रामचन्द्रजी के चरणों में अनुरक्त था, इसलिए उन्हें घर अच्छा नहीं लगा और न वन भयानक लगा। फिर और सब लोगों ने भी वन में विपत्तियों की अधिकता बता-बताकर सीताजी को समझाया॥3॥
सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी॥
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू॥4॥
मूल
सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी॥
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू॥4॥
भावार्थ
मन्त्री सुमन्त्रजी की पत्नी और गुरु वशिष्ठजी की स्त्री अरुन्धतीजी तथा और भी चतुर स्त्रियाँ स्नेह के साथ कोमल वाणी से कहती हैं कि तुमको तो (राजा ने) वनवास दिया नहीं है, इसलिए जो ससुर, गुरु और सास कहें, तुम तो वही करो॥4॥