01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत सङ्कित हृदयँ।
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥75॥
मूल
मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत सङ्कित हृदयँ।
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥75॥
भावार्थ
माता के चरणों में सिर नवाकर, हृदय में डरते हुए (कि अब भी कोई विघ्न न आ जाए) लक्ष्मणजी तुरन्त इस तरह चल दिए जैसे सौभाग्यवश कोई हिरन कठिन फन्दे को तुडाकर भाग निकला हो॥75॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू॥
बन्दि राम सिय चरन सुहाए। चले सङ्ग नृपमन्दिर आए॥1॥
मूल
गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू॥
बन्दि राम सिय चरन सुहाए। चले सङ्ग नृपमन्दिर आए॥1॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी वहाँ गए जहाँ श्री जानकीनाथजी थे और प्रिय का साथ पाकर मन में बडे ही प्रसन्न हुए। श्री रामजी और सीताजी के सुन्दर चरणों की वन्दना करके वे उनके साथ चले और राजभवन में आए॥1॥
कहहिं परसपर पुर नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी॥
तन कृस मन दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥2॥
मूल
कहहिं परसपर पुर नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी॥
तन कृस मन दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥2॥
भावार्थ
नगर के स्त्री-पुरुष आपस में कह रहे हैं कि विधाता ने खूब बनाकर बात बिगाडी! उनके शरीर दुबले, मन दुःखी और मुख उदास हो रहे हैं। वे ऐसे व्याकुल हैं, जैसे शहद छीन लिए जाने पर शहद की मक्खियाँ व्याकुल हों॥2॥
कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिनु पङ्ख बिहग अकुलाहीं॥
भइ बडि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥3॥
मूल
कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिनु पङ्ख बिहग अकुलाहीं॥
भइ बडि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥3॥
भावार्थ
सब हाथ मल रहे हैं और सिर धुनकर (पीटकर) पछता रहे हैं। मानो बिना पङ्ख के पक्षी व्याकुल हो रहे हों। राजद्वार पर बडी भीड हो रही है। अपार विषाद का वर्णन नहीं किया जा सकता॥3॥
सचिवँ उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे॥
सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी॥4॥
मूल
सचिवँ उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे॥
सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी॥4॥
भावार्थ
‘श्री रामजी पधारे हैं’, ये प्रिय वचन कहकर मन्त्री ने राजा को उठाकर बैठाया। सीता सहित दोनों पुत्रों को (वन के लिए तैयार) देखकर राजा बहुत व्याकुल हुए॥4॥