01 दोहा
करुनासिन्धु सुबन्धु के सुनि मृदु बचन बिनीत।
समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत॥72॥
मूल
करुनासिन्धु सुबन्धु के सुनि मृदु बचन बिनीत।
समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत॥72॥
भावार्थ
दया के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने भले भाई के कोमल और नम्रतायुक्त वचन सुनकर और उन्हें स्नेह के कारण डरे हुए जानकर, हृदय से लगाकर समझाया॥72॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई॥
मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड गइ बडि हानी॥1॥
मूल
मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई॥
मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड गइ बडि हानी॥1॥
भावार्थ
(और कहा-) हे भाई! जाकर माता से विदा माँग आओ और जल्दी वन को चलो! रघुकुल में श्रेष्ठ श्री रामजी की वाणी सुनकर लक्ष्मणजी आनन्दित हो गए। बडी हानि दूर हो गई और बडा लाभ हुआ!॥1॥
हरषित हृदयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अन्ध फिरि लोचन पाए॥
जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनन्दन जानकि साथा॥2॥
मूल
हरषित हृदयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अन्ध फिरि लोचन पाए॥
जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनन्दन जानकि साथा॥2॥
भावार्थ
वे हर्षित हृदय से माता सुमित्राजी के पास आए, मानो अन्धा फिर से नेत्र पा गया हो। उन्होन्ने जाकर माता के चरणों में मस्तक नवाया, किन्तु उनका मन रघुकुल को आनन्द देने वाले श्री रामजी और जानकीजी के साथ था॥2॥
पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी।
गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा॥3॥
मूल
पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी।
गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा॥3॥
भावार्थ
माता ने उदास मन देखकर उनसे (कारण) पूछा। लक्ष्मणजी ने सब कथा विस्तार से कह सुनाई। सुमित्राजी कठोर वचनों को सुनकर ऐसी सहम गईं जैसे हिरनी चारों ओर वन में आग लगी देखकर सहम जाती है॥3॥
लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह सब करब अकाजू॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ सङ्ग बिधि कहिहि कि नाहीं॥4॥
मूल
लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह सब करब अकाजू॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ सङ्ग बिधि कहिहि कि नाहीं॥4॥
भावार्थ
लक्ष्मण ने देखा कि आज (अब) अनर्थ हुआ। ये स्नेह वश काम बिगाड देङ्गी! इसलिए वे विदा माँगते हुए डर के मारे सकुचाते हैं (और मन ही मन सोचते हैं) कि हे विधाता! माता साथ जाने को कहेङ्गी या नहीं॥4॥