01 दोहा
सीतहि सासु आसीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार।
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार॥69॥
मूल
सीतहि सासु आसीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार।
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार॥69॥
भावार्थ
सीताजी को सास ने अनेकों प्रकार से आशीर्वाद और शिक्षाएँ दीं और वे (सीताजी) बडे ही प्रेम से बार-बार चरणकमलों में सिर नवाकर चलीं॥69॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥
कम्प पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥1॥
मूल
समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥
कम्प पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥1॥
भावार्थ
जब लक्ष्मणजी ने समाचार पाए, तब वे व्याकुल होकर उदास मुँह उठ दौडे। शरीर काँप रहा है, रोमाञ्च हो रहा है, नेत्र आँसुओं से भरे हैं। प्रेम से अत्यन्त अधीर होकर उन्होन्ने श्री रामजी के चरण पकड लिए॥1॥
कहि न सकत कछु चितवत ठाढे। मीनु दीन जनु जल तें काढे॥
सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृतु सिरान हमारा॥2॥
मूल
कहि न सकत कछु चितवत ठाढे। मीनु दीन जनु जल तें काढे॥
सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृतु सिरान हमारा॥2॥
भावार्थ
वे कुछ कह नहीं सकते, खडे-खडे देख रहे हैं। (ऐसे दीन हो रहे हैं) मानो जल से निकाले जाने पर मछली दीन हो रही हो। हृदय में यह सोच है कि हे विधाता! क्या होने वाला है? क्या हमारा सब सुख और पुण्य पूरा हो गया?॥2॥
मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा॥
राम बिलोकि बन्धु कर जोरें। देह गेहसब सन तृनु तोरें॥3॥
मूल
मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा॥
राम बिलोकि बन्धु कर जोरें। देह गेहसब सन तृनु तोरें॥3॥
भावार्थ
मुझको श्री रघुनाथजी क्या कहेङ्गे? घर पर रखेङ्गे या साथ ले चलेङ्गे? श्री रामचन्द्रजी ने भाई लक्ष्मण को हाथ जोडे और शरीर तथा घर सभी से नाता तोडे हुए खडे देखा॥3॥
बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर॥
तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू॥4॥
मूल
बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर॥
तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू॥4॥
भावार्थ
तब नीति में निपुण और शील, स्नेह, सरलता और सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी वचन बोले- हे तात! परिणाम में होने वाले आनन्द को हृदय में समझकर तुम प्रेमवश अधीर मत होओ॥4॥