066

01 दोहा

राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।
दीनबन्धु सुन्दर सुखद सील सनेह निधान॥66॥

मूल

राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।
दीनबन्धु सुन्दर सुखद सील सनेह निधान॥66॥

भावार्थ

हे दीनबन्धु! हे सुन्दर! हे सुख देने वाले! हे शील और प्रेम के भण्डार! यदि अवधि (चौदह वर्ष) तक मुझे अयोध्या में रखते हैं, तो जान लीजिए कि मेरे प्राण नहीं रहेङ्गे॥66॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥1॥

मूल

मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥1॥

भावार्थ

क्षण-क्षण में आपके चरण कमलों को देखते रहने से मुझे मार्ग चलने में थकावट न होगी। हे प्रियतम! मैं सभी प्रकार से आपकी सेवा करूँगी और मार्ग चलने से होने वाली सारी थकावट को दूर कर दूँगी॥1॥

पाय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥2॥

मूल

पाय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥2॥

भावार्थ

आपके पैर धोकर, पेडों की छाया में बैठकर, मन में प्रसन्न होकर हवा करूँगी (पङ्खा झलूँगी)। पसीने की बूँदों सहित श्याम शरीर को देखकर प्राणपति के दर्शन करते हुए दुःख के लिए मुझे अवकाश ही कहाँ रहेगा॥2॥

सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाय पलोटिहि सब निसि दासी॥
बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि तात बयारि न मोही॥3॥

मूल

सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाय पलोटिहि सब निसि दासी॥
बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि तात बयारि न मोही॥3॥

भावार्थ

समतल भूमि पर घास और पेडों के पत्ते बिछाकर यह दासी रातभर आपके चरण दबावेगी। बार-बार आपकी कोमल मूर्ति को देखकर मुझको गरम हवा भी न लगेगी॥3॥

को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिङ्घबधुहि जिमि ससक सिआरा॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥4॥

मूल

को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिङ्घबधुहि जिमि ससक सिआरा॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥4॥

भावार्थ

प्रभु के साथ (रहते) मेरी ओर (आँख उठाकर) देखने वाला कौन है (अर्थात कोई नहीं देख सकता)! जैसे सिंह की स्त्री (सिंहनी) को खरगोश और सियार नहीं देख सकते। मैं सुकुमारी हूँ और नाथ वन के योग्य हैं? आपको तो तपस्या उचित है और मुझको विषय भोग?॥4॥