01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल॥65॥
मूल
खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल॥65॥
भावार्थ
हे नाथ! आपके साथ पक्षी और पशु ही मेरे कुटुम्बी होङ्गे, वन ही नगर और वृक्षों की छाल ही निर्मल वस्त्र होङ्गे और पर्णकुटी (पत्तों की बनी झोपडी) ही स्वर्ग के समान सुखों की मूल होगी॥65॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बनदेबीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥
कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मञ्जु मनोज तुराई॥1॥
मूल
बनदेबीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥
कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मञ्जु मनोज तुराई॥1॥
भावार्थ
उदार हृदय के वनदेवी और वनदेवता ही सास-ससुर के समान मेरी सार-सम्भार करेङ्गे और कुशा और पत्तों की सुन्दर साथरी (बिछौना) ही प्रभु के साथ कामदेव की मनोहर तोशक के समान होगी॥1॥
कन्द मूल फल अमिअ अहारू। अवध सौध सत सरिस पहारू॥
छिनु-छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥2॥
मूल
कन्द मूल फल अमिअ अहारू। अवध सौध सत सरिस पहारू॥
छिनु-छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥2॥
भावार्थ
कन्द, मूल और फल ही अमृत के समान आहार होङ्गे और (वन के) पहाड ही अयोध्या के सैकडों राजमहलों के समान होङ्गे। क्षण-क्षण में प्रभु के चरण कमलों को देख-देखकर मैं ऐसी आनन्दित रहूँगी जैसे दिन में चकवी रहती है॥2॥
बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे॥
प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥3॥
मूल
बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे॥
प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥3॥
भावार्थ
हे नाथ! आपने वन के बहुत से दुःख और बहुत से भय, विषाद और सन्ताप कहे, परन्तु हे कृपानिधान! वे सब मिलकर भी प्रभु (आप) के वियोग (से होने वाले दुःख) के लवलेश के समान भी नहीं हो सकते॥3॥
अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि। लेइअ सङ्ग मोहि छाडिअ जनि॥
बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अन्तरजामी॥4॥
मूल
अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि। लेइअ सङ्ग मोहि छाडिअ जनि॥
बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अन्तरजामी॥4॥
भावार्थ
ऐसा जी में जानकर, हे सुजान शिरोमणि! आप मुझे साथ ले लीजिए, यहाँ न छोडिए। हे स्वामी! मैं अधिक क्या विनती करूँ? आप करुणामय हैं और सबके हृदय के अन्दर की जानने वाले हैं॥4॥