062

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमि सयन बलकल बसन असनु कन्द फल मूल।
ते कि सदा सब दिन मिलहिं सबुइ समय अनुकूल॥62॥

मूल

भूमि सयन बलकल बसन असनु कन्द फल मूल।
ते कि सदा सब दिन मिलहिं सबुइ समय अनुकूल॥62॥

भावार्थ

जमीन पर सोना, पेडों की छाल के वस्त्र पहनना और कन्द, मूल, फल का भोजन करना होगा। और वे भी क्या सदा सब दिन मिलेङ्गे? सब कुछ अपने-अपने समय के अनुकूल ही मिल सकेगा॥62॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥
लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥1॥

मूल

नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥
लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥1॥

भावार्थ

मनुष्यों को खाने वाले निशाचर (राक्षस) फिरते रहते हैं। वे करोडों प्रकार के कपट रूप धारण कर लेते हैं। पहाड का पानी बहुत ही लगता है। वन की विपत्ति बखानी नहीं जा सकती॥1॥

ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा॥
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ॥2॥

मूल

ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा॥
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ॥2॥

भावार्थ

वन में भीषण सर्प, भयानक पक्षी और स्त्री-पुरुषों को चुराने वाले राक्षसों के झुण्ड के झुण्ड रहते हैं। वन की (भयङ्करता) याद आने मात्र से धीर पुरुष भी डर जाते हैं। फिर हे मृगलोचनि! तुम तो स्वभाव से ही डरपोक हो!॥2॥

हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू॥
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥3॥

मूल

हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू॥
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥3॥

भावार्थ

हे हंसगमनी! तुम वन के योग्य नहीं हो। तुम्हारे वन जाने की बात सुनकर लोग मुझे अपयश देङ्गे (बुरा कहेङ्गे)। मानसरोवर के अमृत के समान जल से पाली हुई हंसिनी कहीं खारे समुद्र में जी सकती है॥3॥

नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला॥
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चन्दबदनि दुखु कानन भारी॥4॥

मूल

नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला॥
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चन्दबदनि दुखु कानन भारी॥4॥

भावार्थ

नवीन आम के वन में विहार करने वाली कोयल क्या करील के जङ्गल में शोभा पाती है? हे चन्द्रमुखी! हृदय में ऐसा विचारकर तुम घर ही पर रहो। वन में बडा कष्ट है॥4॥