061

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर श्रुति सम्मत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।
हठ बस सब सङ्कट सहे गालव नहुष नरेस॥61॥

मूल

गुर श्रुति सम्मत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।
हठ बस सब सङ्कट सहे गालव नहुष नरेस॥61॥

भावार्थ

(मेरी आज्ञा मानकर घर पर रहने से) गुरु और वेद के द्वारा सम्मत धर्म (के आचरण) का फल तुम्हें बिना ही क्लेश के मिल जाता है, किन्तु हठ के वश होकर गालव मुनि और राजा नहुष आदि सब ने सङ्कट ही सहे॥61॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥
दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुन्दरि सिखवनु सुनहु हमारा॥1॥

मूल

मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥
दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुन्दरि सिखवनु सुनहु हमारा॥1॥

भावार्थ

हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो, मैं भी पिता के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूँगा। दिन जाते देर नहीं लगेगी। हे सुन्दरी! हमारी यह सीख सुनो!॥1॥

जौं हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा॥
काननु कठिन भयङ्करु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी॥2॥

मूल

जौं हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा॥
काननु कठिन भयङ्करु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी॥2॥

भावार्थ

हे वामा! यदि प्रेमवश हठ करोगी, तो तुम परिणाम में दुःख पाओगी। वन बडा कठिन (क्लेशदायक) और भयानक है। वहाँ की धूप, जाडा, वर्षा और हवा सभी बडे भयानक हैं॥2॥

कुस कण्टक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना॥
चरन कमल मृदु मञ्जु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे॥3॥

मूल

कुस कण्टक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना॥
चरन कमल मृदु मञ्जु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे॥3॥

भावार्थ

रास्ते में कुश, काँटे और बहुत से कङ्कड हैं। उन पर बिना जूते के पैदल ही चलना होगा। तुम्हारे चरणकमल कोमल और सुन्दर हैं और रास्ते में बडे-बडे दुर्गम पर्वत हैं॥3॥

कन्दर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे॥
भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा॥4॥

मूल

कन्दर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे॥
भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा॥4॥

भावार्थ

पर्वतों की गुफाएँ, खोह (दर्रे), नदियाँ, नद और नाले ऐसे अगम्य और गहरे हैं कि उनकी ओर देखा तक नहीं जाता। रीछ, बाघ, भेडिये, सिंह और हाथी ऐसे (भयानक) शब्द करते हैं कि उन्हें सुनकर धीरज भाग जाता है॥4॥