01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु॥58॥
मूल
पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु॥58॥
भावार्थ
इनके पिता जनकजी राजाओं के शिरोमणि हैं, ससुर सूर्यकुल के सूर्य हैं और पति सूर्यकुल रूपी कुमुदवन को खिलाने वाले चन्द्रमा तथा गुण और रूप के भण्डार हैं॥58॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥1॥
मूल
मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥1॥
भावार्थ
फिर मैन्ने रूप की राशि, सुन्दर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पाई है। मैन्ने इन (जानकी) को आँखों की पुतली बनाकर इनसे प्रेम बढाया है और अपने प्राण इनमें लगा रखे हैं॥1॥
कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सीञ्चि सनेह सलिल प्रतिपाली॥
फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा॥2॥
मूल
कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सीञ्चि सनेह सलिल प्रतिपाली॥
फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा॥2॥
भावार्थ
इन्हें कल्पलता के समान मैन्ने बहुत तरह से बडे लाड-चाव के साथ स्नेह रूपी जल से सीञ्चकर पाला है। अब इस लता के फूलने-फलने के समय विधाता वाम हो गए। कुछ जाना नहीं जाता कि इसका क्या परिणाम होगा॥2॥
पलँग पीठ तजि गोद हिण्डोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहउँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥3॥
मूल
पलँग पीठ तजि गोद हिण्डोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहउँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥3॥
भावार्थ
सीता ने पर्यङ्कपृष्ठ (पलङ्ग के ऊपर), गोद और हिण्डोले को छोडकर कठोर पृथ्वी पर कभी पैर नहीं रखा। मैं सदा सञ्जीवनी जडी के समान (सावधानी से) इनकी रखवाली करती रही हूँ। कभी दीपक की बत्ती हटाने को भी नहीं कहती॥3॥
सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा॥
चन्द किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुखनयन सकइ किमि जोरी॥4॥
मूल
सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा॥
चन्द किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुखनयन सकइ किमि जोरी॥4॥
भावार्थ
वही सीता अब तुम्हारे साथ वन चलना चाहती है। हे रघुनाथ! उसे क्या आज्ञा होती है? चन्द्रमा की किरणों का रस (अमृत) चाहने वाली चकोरी सूर्य की ओर आँख किस तरह मिला सकती है॥4॥