01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढाइ।
मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ॥56॥
मूल
यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढाइ।
मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ॥56॥
भावार्थ
यह सोचकर झूठा स्नेह बढाकर मैं हठ नहीं करती! बेटा! मैं बलैया लेती हूँ, माता का नाता मानकर मेरी सुध भूल न जाना॥56॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव पितर सब तुम्हहि गोसाईं। राखहुँ पलक नयन की नाईं॥
अवधि अम्बु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥1॥
मूल
देव पितर सब तुम्हहि गोसाईं। राखहुँ पलक नयन की नाईं॥
अवधि अम्बु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥1॥
भावार्थ
हे गोसाईं! सब देव और पितर तुम्हारी वैसी ही रक्षा करें, जैसे पलकें आँखों की रक्षा करती हैं। तुम्हारे वनवास की अवधि (चौदह वर्ष) जल है, प्रियजन और कुटुम्बी मछली हैं। तुम दया की खान और धर्म की धुरी को धारण करने वाले हो॥1॥
अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेण्टहु आई॥
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ॥2॥
मूल
अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेण्टहु आई॥
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ॥2॥
भावार्थ
ऐसा विचारकर वही उपाय करना, जिसमें सबके जीते जी तुम आ मिलो। मैं बलिहारी जाती हूँ, तुम सेवकों, परिवार वालों और नगर भर को अनाथ करके सुखपूर्वक वन को जाओ॥2॥
सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता॥
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी॥3॥
मूल
सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता॥
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी॥3॥
भावार्थ
आज सबके पुण्यों का फल पूरा हो गया। कठिन काल हमारे विपरीत हो गया। (इस प्रकार) बहुत विलाप करके और अपने को परम अभागिनी जानकर माता श्री रामचन्द्रजी के चरणों में लिपट गईं॥3॥
दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा॥
राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई॥4॥
मूल
दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा॥
राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई॥4॥
भावार्थ
हृदय में भयानक दुःसह सन्ताप छा गया। उस समय के बहुविध विलाप का वर्णन नहीं किया जा सकता। श्री रामचन्द्रजी ने माता को उठाकर हृदय से लगा लिया और फिर कोमल वचन कहकर उन्हें समझाया॥4॥