01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजु देन कहिदीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु।
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचण्ड कलेसु॥55॥
मूल
राजु देन कहिदीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु।
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचण्ड कलेसु॥55॥
भावार्थ
राज्य देने को कहकर वन दे दिया, उसका मुझे लेशमात्र भी दुःख नहीं है। (दुःख तो इस बात का है कि) तुम्हारे बिना भरत को, महाराज को और प्रजा को बडा भारी क्लेश होगा॥55॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बडि माता॥
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥1॥
मूल
जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बडि माता॥
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥1॥
भावार्थ
हे तात! यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा, हो तो माता को (पिता से) बडी जानकर वन को मत जाओ, किन्तु यदि पिता-माता दोनों ने वन जाने को कहा हो, तो वन तुम्हारे लिए सैकडों अयोध्या के समान है॥1॥
पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी॥
अन्तहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू॥2॥
मूल
पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी॥
अन्तहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू॥2॥
भावार्थ
वन के देवता तुम्हारे पिता होङ्गे और वनदेवियाँ माता होङ्गी। वहाँ के पशु-पक्षी तुम्हारे चरणकमलों के सेवक होङ्गे। राजा के लिए अन्त में तो वनवास करना उचित ही है। केवल तुम्हारी (सुकुमार) अवस्था देखकर हृदय में दुःख होता है॥2॥
बडभागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी॥
जौं सुत कहौं सङ्ग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ सन्देहू॥3॥
मूल
बडभागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी॥
जौं सुत कहौं सङ्ग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ सन्देहू॥3॥
भावार्थ
हे रघुवंश के तिलक! वन बडा भाग्यवान है और यह अवध अभागा है, जिसे तुमने त्याग दिया। हे पुत्र! यदि मैं कहूँ कि मुझे भी साथ ले चलो तो तुम्हारे हृदय में सन्देह होगा (कि माता इसी बहाने मुझे रोकना चाहती हैं)॥3॥
पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के॥
ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ॥4॥
मूल
पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के॥
ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ॥4॥
भावार्थ
हे पुत्र! तुम सभी के परम प्रिय हो। प्राणों के प्राण और हृदय के जीवन हो। वही (प्राणाधार) तुम कहते हो कि माता! मैं वन को जाऊँ और मैं तुम्हारे वचनों को सुनकर बैठी पछताती हूँ!॥4॥