054

01 दोहा

निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।
सुनि प्रसङ्गु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ॥54॥

मूल

निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।
सुनि प्रसङ्गु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ॥54॥

भावार्थ

तब श्री रामचन्द्रजी का रुख देखकर मन्त्री के पुत्र ने सब कारण समझाकर कहा। उस प्रसङ्ग को सुनकर वे गूँगी जैसी (चुप) रह गईं, उनकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता॥54॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥1॥

मूल

राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥1॥

भावार्थ

न रख ही सकती हैं, न यह कह सकती हैं कि वन चले जाओ। दोनों ही प्रकार से हृदय में बडा भारी सन्ताप हो रहा है। (मन में सोचती हैं कि देखो-) विधाता की चाल सदा सबके लिए टेढी होती है। लिखने लगे चन्द्रमा और लिखा गया राहु॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरम सनेह उभयँ मति घेरी।
भइ गति साँप छुछुन्दरि+++(=उपमूषः)+++ केरी॥
“राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू।
धरमु जाइ अरु बन्धु बिरोधू”॥2॥

मूल

धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भइ गति साँप छुछुन्दरि केरी॥
राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बन्धु बिरोधू॥2॥

भावार्थ

धर्म और स्नेह दोनों ने कौसल्याजी की बुद्धि को घेर लिया।
उनकी दशा साँप-छछूँदर की सी हो गई।
वे सोचने लगीं कि
यदि मैं अनुरोध (हठ) करके पुत्र को रख लेती हूँ
तो धर्म जाता है
और भाइयों में विरोध होता है,॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहउँ जान बन तौ बडि हानी।
सङ्कट सोच बिबस भइ रानी॥
बहुरि समुझि तिय+++(=स्त्री)+++-धरमु सयानी।
रामु भरतु दोउ सुत सम जानी॥3॥

मूल

कहउँ जान बन तौ बडि हानी। सङ्कट सोच बिबस भइ रानी॥
बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी॥3॥

भावार्थ

और यदि वन जाने को कहती हूँ तो बडी हानि होती है। इस प्रकार के धर्मसङ्कट में पडकर रानी विशेष रूप से सोच के वश हो गईं। फिर बुद्धिमती कौसल्याजी स्त्री धर्म (पातिव्रत धर्म) को समझकर और राम तथा भरत दोनों पुत्रों को समान जानकर-॥3॥

सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी॥
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका॥4॥

मूल

सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी॥
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका॥4॥

भावार्थ

सरल स्वभाव वाली श्री रामचन्द्रजी की माता बडा धीरज धरकर वचन बोलीं- हे तात! मैं बलिहारी जाती हूँ, तुमने अच्छा किया। पिता की आज्ञा का पालन करना ही सब धर्मों का शिरोमणि धर्म है॥4॥