052

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति।
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति॥52॥

मूल

जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति।
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति॥52॥

भावार्थ

तथा जिस (लग्न) को सभी स्त्री-पुरुष अत्यन्त व्याकुलता से इस प्रकार चाहते हैं जिस प्रकार प्यास से चातक और चातकी शरद् ऋतु के स्वाति नक्षत्र की वर्षा को चाहते हैं॥52॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तात जाउँ बलि बेगि नाहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥
पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बडि बार जाइ बलि मैआ॥1॥

मूल

तात जाउँ बलि बेगि नाहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥
पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बडि बार जाइ बलि मैआ॥1॥

भावार्थ

हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो। भैया! तब पिता के पास जाना। बहुत देर हो गई है, माता बलिहारी जाती है॥1॥

मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला॥
सुख मकरन्द भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवँरु न भूला॥2॥

मूल

मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला॥
सुख मकरन्द भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवँरु न भूला॥2॥

भावार्थ

माता के अत्यन्त अनुकूल वचन सुनकर- जो मानो स्नेह रूपी कल्पवृक्ष के फूल थे, जो सुख रूपी मकरन्द (पुष्परस) से भरे थे और श्री (राजलक्ष्मी) के मूल थे- ऐसे वचन रूपी फूलों को देकर श्री रामचन्द्रजी का मन रूपी भौंरा उन पर नहीं भूला॥2॥

धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड काजू॥3॥

मूल

धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड काजू॥3॥

भावार्थ

धर्मधुरीण श्री रामचन्द्रजी ने धर्म की गति को जानकर माता से अत्यन्त कोमल वाणी से कहा- हे माता! पिताजी ने मुझको वन का राज्य दिया है, जहाँ सब प्रकार से मेरा बडा काम बनने वाला है॥3॥

आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मङ्गल कानन जाता॥
जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अम्ब अनुग्रह तोरें॥4॥

मूल

आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मङ्गल कानन जाता॥
जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अम्ब अनुग्रह तोरें॥4॥

भावार्थ

हे माता! तू प्रसन्न मन से मुझे आज्ञा दे, जिससे मेरी वन यात्रा में आनन्द-मङ्गल हो। मेरे स्नेहवश भूलकर भी डरना नहीं। हे माता! तेरी कृपा से आनन्द ही होगा॥4॥