01 दोहा
नव गयन्दु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनन्दु अधिकान॥51॥
मूल
नव गयन्दु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनन्दु अधिकान॥51॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी का मन नए पकडे हुए हाथी के समान और राजतिलक उस हाथी के बाँधने की काँटेदार लोहे की बेडी के समान है। ‘वन जाना है’ यह सुनकर, अपने को बन्धन से छूटा जानकर, उनके हृदय में आनन्द बढ गया है॥51॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥1॥
मूल
रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥1॥
भावार्थ
रघुकुल तिलक श्री रामचन्द्रजी ने दोनों हाथ जोडकर आनन्द के साथ माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद दिया, अपने हृदय से लगा लिया और उन पर गहने तथा कपडे निछावर किए॥1॥
बार-बार मुख चुम्बति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता॥
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए॥2॥
मूल
बार-बार मुख चुम्बति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता॥
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए॥2॥
भावार्थ
माता बार-बार श्री रामचन्द्रजी का मुख चूम रही हैं। नेत्रों में प्रेम का जल भर आया है और सब अङ्ग पुलकित हो गए हैं। श्री राम को अपनी गोद में बैठाकर फिर हृदय से लगा लिया। सुन्दर स्तन प्रेमरस (दूध) बहाने लगे॥2॥
प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रङ्क धनद पदबी जनु पाई॥
सादर सुन्दर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी॥3॥
मूल
प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रङ्क धनद पदबी जनु पाई॥
सादर सुन्दर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी॥3॥
भावार्थ
उनका प्रेम और महान् आनन्द कुछ कहा नहीं जाता। मानो कङ्गाल ने कुबेर का पद पा लिया हो। बडे आदर के साथ सुन्दर मुख देखकर माता मधुर वचन बोलीं-॥3॥
कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मङ्गलकारी॥
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई॥4॥
मूल
कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मङ्गलकारी॥
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई॥4॥
भावार्थ
हे तात! माता बलिहारी जाती है, कहो, वह आनन्द- मङ्गलकारी लग्न कब है, जो मेरे पुण्य, शील और सुख की सुन्दर सीमा है और जन्म लेने के लाभ की पूर्णतम अवधि है,॥4॥