01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु करहिहहिं धाम।
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥49॥
मूल
सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु करहिहहिं धाम।
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥49॥
भावार्थ
क्या सीताजी अपने पति (श्री रामचन्द्रजी) का साथ छोड देङ्गी? क्या लक्ष्मणजी श्री रामचन्द्रजी के बिना घर रह सकेङ्गे? क्या भरतजी श्री रामचन्द्रजी के बिना अयोध्यापुरी का राज्य भोग सकेङ्गे? और क्या राजा श्री रामचन्द्रजी के बिना जीवित रह सकेङ्गे? (अर्थात् न सीताजी यहाँ रहेङ्गी, न लक्ष्मणजी रहेङ्गे, न भरतजी राज्य करेङ्गे और न राजा ही जीवित रहेङ्गे, सब उजाड हो जाएगा।)॥49॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस बिचारि उर छाडहु कोहू। सोक कलङ्क कोठि जनि होहू॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥1॥
मूल
अस बिचारि उर छाडहु कोहू। सोक कलङ्क कोठि जनि होहू॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥1॥
भावार्थ
हृदय में ऐसा विचार कर क्रोध छोड दो, शोक और कलङ्क की कोठी मत बनो। भरत को अवश्य युवराजपद दो, पर श्री रामचन्द्रजी का वन में क्या काम है?॥1॥
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥2॥
मूल
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥2॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी राज्य के भूखे नहीं हैं। वे धर्म की धुरी को धारण करने वाले और विषय रस से रूखे हैं (अर्थात् उनमें विषयासक्ति है ही नहीं), इसलिए तुम यह शङ्का न करो कि श्री रामजी वन न गए तो भरत के राज्य में विघ्न करेङ्गे, इतने पर भी मन न माने तो) तुम राजा से दूसरा ऐसा (यह) वर ले लो कि श्री राम घर छोडकर गुरु के घर रहें॥2॥
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥3॥
मूल
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥3॥
भावार्थ
जो तुम हमारे कहने पर न चलोगी तो तुम्हारे हाथ कुछ भी न लगेगा। यदि तुमने कुछ हँसी की हो तो उसे प्रकट में कहकर जना दो (कि मैन्ने दिल्लगी की है)॥3॥
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलङ्कु नसाई॥4॥
मूल
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलङ्कु नसाई॥4॥
भावार्थ
राम सरीखा पुत्र क्या वन के योग्य है? यह सुनकर लोग तुम्हें क्या कहेङ्गे! जल्दी उठो और वही उपाय करो जिस उपाय से इस शोक और कलङ्क का नाश हो॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेहि भाँति सोकु कलङ्कु जाइ उपाय करि कुल पालही।
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चन्द बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिन समुझि धौं जियँ भामनी॥
मूल
जेहि भाँति सोकु कलङ्कु जाइ उपाय करि कुल पालही।
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चन्द बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिन समुझि धौं जियँ भामनी॥
भावार्थ
जिस तरह (नगरभर का) शोक और (तुम्हारा) कलङ्क मिटे, वही उपाय करके कुल की रक्षा कर। वन जाते हुए श्री रामजी को हठ करके लौटा ले, दूसरी कोई बात न चला। तुलसीदासजी कहते हैं- जैसे सूर्य के बिना दिन, प्राण के बिना शरीर और चन्द्रमा के बिना रात (निर्जीव तथा शोभाहीन हो जाती है), वैसे ही श्री रामचन्द्रजी के बिना अयोध्या हो जाएगी, हे भामिनी! तू अपने हृदय में इस बात को समझ (विचारकर देख) तो सही।