046

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुख सुखाहिं लोचन स्रवहिं सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहुँ करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥

मूल

मुख सुखाहिं लोचन स्रवहिं सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहुँ करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥

भावार्थ

सबके मुख सूखे जाते हैं, आँखों से आँसू बहते हैं, शोक हृदय में नहीं समाता। मानो करुणा रस की सेना अवध पर डङ्का बजाकर उतर आई हो॥46॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकइहि गारी॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥1॥

मूल

मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकइहि गारी॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥1॥

भावार्थ

सब मेल मिल गए थे (सब संयोग ठीक हो गए थे), इतने में ही विधाता ने बात बिगाड दी! जहाँ-तहाँ लोग कैकेयी को गाली दे रहे हैं! इस पापिन को क्या सूझ पडा जो इसने छाए घर पर आग रख दी॥1॥

निज कर नयन काढि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥2॥

मूल

निज कर नयन काढि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥2॥

भावार्थ

यह अपने हाथ से अपनी आँखों को निकालकर (आँखों के बिना ही) देखना चाहती है और अमृत फेङ्ककर विष चखना चाहती है! यह कुटिल, कठोर, दुर्बुद्धि और अभागिनी कैकेयी रघुवंश रूपी बाँस के वन के लिए अग्नि हो गई!॥2॥

पालव बैठि पेडु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥3॥

मूल

पालव बैठि पेडु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥3॥

भावार्थ

पत्ते पर बैठकर इसने पेड को काट डाला। सुख में शोक का ठाट ठटकर रख दिया! श्री रामचन्द्रजी इसे सदा प्राणों के समान प्रिय थे। फिर भी न जाने किस कारण इसने यह कुटिलता ठानी॥3॥

सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥
निज प्रतिबिम्बु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥4॥

मूल

सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥
निज प्रतिबिम्बु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥4॥

भावार्थ

कवि सत्य ही कहते हैं कि स्त्री का स्वभाव सब प्रकार से पकड में न आने योग्य, अथाह और भेदभरा होता है। अपनी परछाहीं भले ही पकड जाए, पर भाई! स्त्रियों की गति (चाल) नहीं जानी जाती॥4॥