01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥
मूल
गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥
भावार्थ
इतने में राजा की मूर्छा दूर हुई, उन्होन्ने राम का स्मरण करके (‘राम! राम!’ कहकर) फिरकर करवट ली। मन्त्री ने श्री रामचन्द्रजी का आना कहकर समयानुकूल विनती की॥43॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥1॥
मूल
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥1॥
भावार्थ
जब राजा ने सुना कि श्री रामचन्द्र पधारे हैं तो उन्होन्ने धीरज धरके नेत्र खोले। मन्त्री ने सम्भालकर राजा को बैठाया। राजा ने श्री रामचन्द्रजी को अपने चरणों में पडते (प्रणाम करते) देखा॥1॥
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥2॥
मूल
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥2॥
भावार्थ
स्नेह से विकल राजा ने रामजी को हृदय से लगा लिया। मानो साँप ने अपनी खोई हुई मणि फिर से पा ली हो। राजा दशरथजी श्री रामजी को देखते ही रह गए। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह चली॥2॥
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥3॥
मूल
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥3॥
भावार्थ
शोक के विशेष वश होने के कारण राजा कुछ कह नहीं सकते। वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी को हृदय से लगाते हैं और मन में ब्रह्माजी को मनाते हैं कि जिससे श्री राघुनाथजी वन को न जाएँ॥3॥
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥4॥
मूल
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥4॥
भावार्थ
फिर महादेवजी का स्मरण करके उनसे निहोरा करते हुए कहते हैं- हे सदाशिव! आप मेरी विनती सुनिए। आप आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होने वाले) और अवढरदानी (मुँहमाँगा दे डालने वाले) हैं। अतः मुझे अपना दीन सेवक जानकर मेरे दुःख को दूर कीजिए॥4॥